नाम और नाम की राशि का प्रभाव

कभी कभी देखा होगा कि कोई व्यक्ति अमुक स्थान पर मिलने का समय देता है और जब निश्चित समय पर उस स्थान पर पहुंचते है तो वह उस स्थान पर नही मिलता है। इसके साथ यह भी देखा होगा कि एक व्यक्ति आजीवन कमाता है खूब तरक्की भी करता है और एक समय ऐसा आता है जब वह अपने को सभी तरह से लगातार नीचे ही गिराता जाता है,और अन्त मे बरबाद हो जाता है। यह सब अक्सर उन्ही के साथ देखने में आता है जिनके नाम द्वि-शब्दीय होते है,शब्द का निर्माण अक्षर से होता है और अक्षर व्यक्ति की जिन्दगी को अपने अपने बल के अनुसार चलाने के लिये माने जाते है। वैदिक काल में अक्षर को बनाकर उससे मिलने वाली शक्ति को समझकर ही प्रयोग में लाया जाता था,वैसे चलन में देखा गया है कि वैदिक काल से ही व्यक्ति का नाम चन्द्र राशि से रखा जाता है,और चन्द्रमा को भी ज्योतिष में माता के नाम से जाना जाता है। ज्योतिष से चन्द्र राशि का नाम ही बच्चे का केवल इसलिये भी रखा जाता है कि वह माता के आशीर्वाद से अपने जीवन को हमेशा आगे से आगे बढाता रहे। मनसोजायते चन्द्रमा के अनुसार जो मन में उत्पन्न होता है वह सब माता की प्रकृति के अनुसार ही उत्पन्न होता है,देश काल और परिस्थिति के अनुसार भले ही बदल जाये लेकिन वह स्वभाव मन के अनुसार माता के स्वभाव से अपने अपने स्थान पर जरूर मिलता है।

द्वि-शब्दीय नाम के अनुसार व्यक्ति का नाम दो राशियों से जोडकर माना जाता है,अक्सर जो राशियां शत्रु मित्र या समान भाव वाली एक दूसरे के प्रति होती है वे अपना अपना असर अपने अपने अनुसार प्रदान करती है। एक नाम जैसे रामबाबू को देखिये,इस नाम में पहला शब्द तो तुला राशि का है और दूसरा वृष राशि का है,व्यक्ति का उठान तो तुला राशि से होता है और उसका पतन वृष राशि से होता है,कारण तुला से वृष अष्टम की राशि है और हमेशा अपमान मृत्यु और जोखिम वाले कामों को ही करने के लिये अपना अपना बल देती है। उसी प्रकार से वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में प्रचलित नाम दिग्विजय के अनुसार भी समझा जा सकता है पहला शब्द मीन राशि से और दूसरा शब्द वृष राशि से होने के कारण जो भी व्यक्ति की उन्नति वाली बाते होंगी पहले वह अपने समाज और संस्थान से आगे बढेगा लेकिन अपने द्वारा तीसरे भाव का प्रयोग करने के बाद जो बोलने लिखने और अपने को प्रदर्शित करने के मामलों में सोचेगा वही उसके लिये पतन का कारण बन जायेंगे। नाम के अन्दर राशियों के अलावा भी देखने को मिलता है,कि अगर नाम की राशि के पहले शब्द का मालिक ग्रह दूसरे शब्द की राशि के मालिक से विरोधी है तो खुद के द्वारा अपने पैर में कुल्हाडी मारने वाली बात ही मानी जा सकती है। जैसे उपरोक्त नाम में पहले शब्द की राशि का मालिक गुरु है,तो दूसरे शब्द की राशि का मालिक शुक्र है,पहली नाम राशि तो व्यक्ति को अपने आचरण और व्यवहार तथा ज्ञान के द्रिष्टिकोण से आगे बढाने के लिये मानी जायेगी लेकिन दूसरे शब्द की शुक्र वाली आदत शुक्र वाले प्रभाव और शुक्र के द्वारा जो धन स्त्री और वैभव तथा भौतिकता के कारण ही अपने को बरबाद करने के लिये मुख्य कारक इकट्ठा किया जाना भी मिलेगा और वे ही उसकी मर्यादा स्थान और लोगों से अपमान दिलवाने तथा जूझने के लिये अपने प्रभाव शुरु करेंगे।

एक विदेशी व्यक्ति के नाम को समझकर देखने से पता लगता है,कि व्यक्ति के अन्दर कन्ट्रोल करने की क्षमता कैसे अपना कार्य करती है,हिटलर नाम द्वि-शब्दीय है,पहले शब्द की राशि कर्क और दूसरे शब्द की राशि मेष है,एक का स्वामी चन्द्रमा और दूसरे का स्वामी मंगल,एक की दिशा उत्तर तो दूसरे की दिशा पूर्व,इस नाम के स्वभाव के अनुसार व्यक्ति मानसिक रूप से कर्क राशि के कारकों को अपने अन्दर पहले समेटने की पूरी क्षमता रखता है और दूसरे शब्द की राशि से वह कार्य के रूप में बदलने की क्रिया को सामने करता है,कर्क राशि मेष राशि को कार्य के स्थान पर प्रयुक्त करता है,कर्क राशि का मालिक चन्द्रमा है और चन्द्रमा का दक्षिणी नकारात्मक कोण केतु के नाम से जाना जाता है,केतु ही क्रिश्चियन जाति का कारक है,इस नाम के व्यक्ति के अन्दर इस जाति के प्रति नकारात्मक भावना थी,और उसी के कारण इस नाम के व्यक्ति ने मेष राशि जो स्वभाव से अपने को बलिदान करने के नाम से जानी जाती है को अपने कार्यों के लिये प्रयोग किया और वह मेष राशि के बल से पूर्व दिशा की तरफ़ ही अपने बल को बढाता गया। इसी तरह व्यक्ति के नाम के अलावा भी हम किसी समुदाय या पार्टी के नाम को भी देखकर समझ सकते है। कांग्रेस की राशि मिथुन है,स्वामी बुध है,बुध का रंग हरा है,बुध का अंक पांच है,जैसे ही इस पार्टी ने अपने निशान को हाथ का पंजा अपना निशान बनाया यह पार्टी आगे बढने लगी,बुध बोलने कानून को बनाने अपने अनुसार चलने और मर्यादा के साथ आते ही फ़िसलने के लिये माना जाता है,इसकी सिफ़्त कमन्यूकेशन के लिये मानी जाती है,हरे रंग का होना और मुस्लिम समुदाय के प्रति उन्मुख होना भी बुध के हरे रंग का कमाल माना जा सकता है,किसी भी मुस्लिम राष्ट्र के झंडे का रंग हरा जरूर मिलेगा,हरे रंग में चन्द्रमा के अन्दर ऊपरी भाग में सितारे का होना भी चन्द्र पुत्र बुध के लिये अपनी उपस्थिति को पहिचान के रूप में देता है। मंगल केतु बुध की रक्षा करते है लेकिन वही मंगल राहु बुध को समाप्त करते है,जातियों में मंगल केतु को सुरक्षा करने वाले और क्षत्री जातियों में श्रेष्ठ जाति के प्रति भी अपनी भावना को प्रदर्शित करता है। मंगल केतु के अन्तर्गत पंजाबी सरदार की पहिचान की जाती है,भूतपूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस में आई शब्द की संस्थापक श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जैसे ही इस मंगल केतु से पंगा लिया जो बुध की सुरक्षा के लिये माना जाता था वैसे ही राहु मंगल का सहारा लेकर खुद के सुरक्षा प्रहरी मंगल केतु ने ही उनकी हत्या कर दी,वर्तमान में वही मंगल केतु उनकी प्रणाली को चलाने के लिये सहायक के रूप में उपस्थित है,लेकिन यही मंगल केतु जो वृष राशि से सम्बन्धित है रक्षा करता है,और उत्तर-पश्चिम दिशा के रूप में माना जाता है,तथा दक्षिण का मंगल केतु इस बुध के लिये राहु के रूप में अपनी बरबाद करने वाली स्थिति को भी दर्शाता है। इसी प्रकार से भारतीय जनता पार्टी नाम के अन्दर धनु राशि और मकर राशि का प्रभाव भी देखने को मिलता है,धनु राशि से मकर राशि बारहवी है,और जैसे ही यह पार्टी अपने अनुसार बारह राशियों को पार करने के बाद तेरहवीं यानी लगन के लिये उन्मुख होती है अपने ही कारणों से समाप्त हो जाती है,पाराशर ऋषि के अनुसार हर भाव का बारहवां भाव उसका विनाशक होता है,यह कारण भाजपा के अन्दर भी देखने को मिलता है.

वास्तु और एक्वेरियम (मत्स्य ऊर्जा)

मछली को हमेशा से शुभ माना गया है। भाग्य के अनुसार जब किसी दिशा से भाग्य की प्राप्ति नही होती है और लगता है कि भाग्य रुक गया है तो उस दिशा में कांच के बने एक्वेरियम को स्थापित किया जाता है और अपनी राशि के अनुसार विभिन्न प्रकार की मछलियों को पाला जाता है। मछलियों की आदत होती है कि वे अपने को कभी भी रोकती नही है,उनकी कोई न कोई क्रिया पानी के अन्दर चला ही करती है। इसके बाद जल कांच के अन्दर जब भर दिया जाता है तो उसके अन्दर रोशनी को देखने के बाद पता लगता है कि वह इन्द्रधनुष जैसी आभा में दिखाई देती है। मछलियों को लगातार देखते रहने के बाद भी जी नही भरता है। इस प्रकार से भाग्य वर्धन वाली दिशा का संचालन होने के बाद रुके हुये कार्य होने लगते है और हम इसे चीन देश का दिया हुआ तोहफ़ा मानने लगते है कि यह ची नामक ऊर्जा शक्ति को प्रदान करने वाली हो,खैर जो भी हो रामचरितमानस में भी दधि और मीन के रूप में मछली को और दही को शुभ माना जाता है आज भी जब किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिये कोई घर का सदस्य बाहर जाता है तो उसके दही का तिलक किया जाता है दही को खिलाकर भेजा जाता है,और सामने मछली को रखा जाता है,जिससे कोई भी कार्य रुक नही सके। अलग अलग राशियों के लिये अलग अलग दिशाओं में एक्वेरियम को स्थापित किया जाता है।

मेष राशि के लिये भाग्य वर्धक दिशा दक्षिण-पश्चिम यानी नैऋत्य कोण को माना गया है,इस दिशा में चौकोर एक्वेरियम लगाने से तथा उसके अन्दर सात मछलिया जिनके अन्दर एक काली मछली होनी आवश्यक है बहुत अच्छा फ़ल देती है। लेकिन इस दिशा में लगाये जाने वाले एक्वेरियम का स्थान कमर से ऊंचा होना चाहिये। साथ ही ध्यान रखना चाहिये कि एक्वेरियम के अन्दर कभी पानी गंदा नही हो और जो भी मछली रखी जाये वह अपने अनुसार कभी बीमार न हो,पानी के तापमान के लिये भी ध्यान रखना आवश्यक है। बडी मछली छोटी मछली के तापमान में नही रह सकती है इसलिये समान आकार वाली मछली को रखना शुभ होता है,वैसे छ: पीली और एक काली मछली भी रखी जा सकती है।

वृष राशि के लिये घर में एक्वेरियम के लिये दक्षिण दिशा को शुभ माना गया है,और इसके अन्दर नौ लाल रंग की मछली बहुत ही शुभफ़लदायक होती है,भूल कर भी हरे रंग की सीनरी और हरे रंग के पत्थर या एक्वेरियम को सजाने वाले सामान से बचना चाहिये। इससे इस राशि वालों के लिये कभी भी धन और मान सम्मान की कमी नही आती है,अगर बहुत ही शक्ति को प्राप्त करना है तो एक्वेरियम के अन्दर लाल सफ़ेद मिक्स पत्थर डाल देने चाहिये।

मिथुन राशि के लिये दक्षिण-पूर्व यानी अग्नि कोण शुभ माना गया है,एक्वेरियम को दक्षिण पूर्व दिशा के कोने में लगाने के बाद इस राशि वालों की मदद उनके मित्रों और लगातार लाभ के साधनों से मिलनी शुरु हो जाती है। इस दिशा में इस राशि वालों को ग्यारह मछली जिसके अन्दर तीन कार्प फ़िस होनी जरूरी है रखनी चाहिये,कोई न कोई एक रंग काले सफ़ेद से सम्बन्धित भी हो सकता है,रोजाना भोजन भी इन मछलियों को घर के मालिक के द्वारा देना चाहिये और साफ़ सफ़ाई का बन्दोबस्त भी मालिक को ही करना चाहिये,एक्वेरियम को कभी भी जीना या सीढी के नीचे नही रखना चाहिये और वास्तु से जो लोग इस दिशा में रसोई आदि का निर्माण कर लेते है तो उससे बचकर ही एक्वेरियम को लगाना चाहिये।

कर्क राशि वालों के लिये भी अग्निकोण में ही मछली स्थापित करनी चाहिये और सिल्वर डालर या सफ़ेद रंग की मछलिया जिनकी संख्या समान होनी चाहिये रखना चाहिये,हरे रंग की सीनरी और पत्थरों को प्रयोग में लाया जा सकता है लेकिन भूल कर भी डरावनी या लाल रंग की सीनरी नही लगाने चाहिये। इस राशि वालों को अगर कोई दिक्कत महिलाओं के सम्बन्ध में आती है तो चौकोर की जगह गोल आकार के एक्वेरियम को लगा लेना चाहिये।

सिंह राशि वाले अपने रहने वाले स्थान में एक्वेरियम को पूर्व दिशा में लगा सकते है और गोल्डन फ़िस को पाल सकते है,लेकिन काली मछली उनके पास कम ही रुकेगी,धारी वाली मछली केट फ़िस आदि दिक्कत देने वाली होगी और पत्थरों के अन्दर पीले पत्थर ही अच्छे रहते है और हरे रंग की बैक ग्राउंड सजावट भी सही रहती है। मछलियों के अन्दर लाल धब्बे पैदा होने पर उन्हे फ़ौरन तापमान के अनुसार रखे जाने की जरूरत होती है।

कन्या राशि वालों के लिये घर की पूर्वोत्तर दिशा में एक्वेरियम लगाने से भाग्य की बढोत्तरी होती है। और जो भी धन वाले साधन होते है वे अपने अपने समय पर खुलते रहते है। इस राशि वालों के लिये भी भूरे रंग की मछली शुभ फ़लदायक होती है और सिल्वर डालर या इसी प्रकार की मछलिया फ़ायदा देने वाली होती है। भूल कर भी इस दिशा में रखे जाने वाले एक्वेरियम में काली सफ़ेद मछली नही रखनी चाहिये अन्यथा मानसिक शांति भंग होने की दिक्कत देखी जाती है।

तुला राशि वालों के लिये भी पूर्वोत्तर दिशा में पछली रखना शुभ होता है और जहां तक हो सके असमान संख्या में मछलियों को रखना चाहिये,इस क्रिया से तुला राशि वालों की कमन्यूकेशन की शक्ति बढती है और वे अपने को लगातार प्रसिद्धि और धन के क्षेत्र में उन्नति करते जाते है। लेकिन आलसी स्वभाव होने से वे अपने कार्य को दूसरे से करवाने के कारण खुद मछलियों की देखभाल नही कर पाते है इसके लिये उन्हे खुद ही प्रयास करना चाहिये,या घर में कोई बहिन बुआ या बेटी को इस काम की जिम्मेदारी देनी चाहिये.इस राशि वालों के लिये भी गोल एक्वेरियम काफ़ी सहायक सिद्ध होता देखा गया है।

वृश्चिक राशि वालों के लिये उत्तर दिशा में एक्वेरियम रखना शुभ माना गया है,और उनके लिये भी सफ़ेद मछली रखना उत्तम माना जाता है इस कार्य से उन्हे गूढ विषयों की जानकारी और धन कमाने के साधारण लोगों से अलग प्रकार के साधन मिलने लगते है। इस राशि वालों को भूल कर भी मछलियों के साथ हाथ से खेलने की भूल नही करनी चाहिये,अन्यथा उनके किसी भी प्रयास से जैसे कि बार बार उन्हे छूने या पकडने की भूल से मछली अपने वास्तविक रंगों को भी बदल सकती है और मर भी सकती है।

धनु राशि वालों के लिये उत्तर-पश्चिम दिशा में एक्वेरियम को लगाना सही रहता है,उन्हे लाल रंग की असमान संख्या में मछलियों को रखा जाना उत्तम रहता है। गोल एक्वेरियम उनके लिये भी फ़ायदा देने वाला माना जाता है,एक्वेरियम के पास अगर वे कोई पानी में पलने वाला पेड भी लगाते है तो उन्हे भाग्य में अचानक परिवर्तन मिलता है।

मकर राशि वालों को भी उत्तर पश्चिम दिशा लाभदायक सिद्ध होती है इसी दिशा में एक्वेरियम को रखा जाना उनके लिये भाग्य में बढोत्तरी करने वाला होता है। हरे रंग की बैक ग्राउंड सीनरी रखना भी लाभदायक है। इस स्थान पर एक्वेरियम रखने के बाद उनकी पैतृक स्थान में चलने वाली कर्जा दुश्मनी बीमारी आदि में लाभ वाली पोजीसन पैदा होनी शुरु हो जाती है और वे कार्य के मामले में अपने को स्थिर रखने में समर्थ होने लगते है।

कुम्भ राशि वालों के लिये भी पश्चिम दिशा में एक्वेरियम रखा शुभ होता है और सफ़ेद रंग की चितकबरी मछलियों को रखना शुभ फ़लदायी माना जाता है। इस कार्य से उनके लाभ वाले साधनों में और न्याय आदि के क्षेत्र में काफ़ी प्रगति मिलती है। अगर इस प्रकार से लोग विदेशी कार्य और व्यापार की तरफ़ भी अग्रसर होते है तो उन्हे आशातीत लाभ मिलना शुरु हो जाता है।

मीन राशि वालों के लिये भी दक्षिण पश्चिम की दिशा ही शुभ फ़लदायक होती है और उनके लिये यह जरूरी होता है कि एक्वेरियम के ऊपर किसी गोल कांच के बर्तन में नमक मिला पानी रखना उत्तम फ़लदायक होता है। वे नीले रंग की सीनरी और अपने अनुसार नीले रंग के साधन भी प्रयोग में ले सकते है। इस प्रकार से पैशाचिक शक्तियां उनसे दूर रहती है,लेकिन ध्यान रखना चाहिये कि मछली के कैसी भी हालत में मरने पर फ़ौरन दूसरी मछली को समान मात्रा में रखा जाना चाहिये।

अपना अपना नम्बर और फ़ेंग सुई

चीनी वास्तुकला को फ़ेंगसुई के नाम से जाना जाता है,रहने वाले स्थान का और अपने विकास के क्षेत्र को पहिचानने के लिये नम्बर एक से लेकर नौ तक के नम्बर अपने चलने वाले नाम के पहले शब्द मे मिलने वाली मात्राओं के अनुसार देखा जाता है। इस प्रणाली को अधिक सरल बनाने के लिये अपने नाम के पहले शब्द को अन्ग्रेजी में लिख लेना चाहिये,और उस शब्द के अन्दर कितने A E I O U H आते है उनको गिन लेना चाहिये तथा 1,5,7,6,8 क्रमश: मानना चाहिये। जितनी बार यह अक्षर आते है उनकी गिनती को आपस में जोड लेना चाहिये और जो संयुक्त संख्या आती है उसको जोड कर अकेला नम्बर बना लेना चाहिये। जैसे किसी का नाम रामप्रसाद है,इस नाम के अन्दर दो शब्द है,एक राम और दूसरा प्रसाद,पहले शब्द को अन्ग्रेजी में लिखने पर RAM शब्द लिखा जाता है,इसके अन्दर एक बार ही अक्षर A का प्रयोग हुआ है। इस A का मान 1 है,इसलिये इस नाम का फ़ेमंगसुई के अनुसार नम्बर 1 हुआ उसके लिये जो भी मान्यता वास्तु और रहने वाले स्थान के लिये मानी जाती है उनके अनुसार उपाय करने चाहिये।

नम्बर 1 वालों के लिये भाग्य वर्धक उपाय

जिनका नम्बर एक आता है उनके लिये धन तथा उन्नति के लिये अग्नि कोण की दिशा शुभ कही गयी है,इस दिशा में जन्म स्थान से जाने और व्यवसाय आदि करने के बाद धन की प्राप्ति होती है,समृद्धि बढती है। धन की कमी होने या वर्तमान में निवास करने के समय सामयिक रूप से माफ़िक बनाने के लिये अपने निवास के अग्नि कोण में मनीप्लांट का पौधा लगा लेना चाहिये,मिट्टी की बनी हुयी या चीनी मिट्टी के बनी हुये हंसती हुई कोई मूर्ति लगा लेनी चाहिये,अथवा कोई पोस्टर जिसके अन्दर कोई बुजुर्ग व्यक्ति हंसता हुआ हो लगा लेना चाहिये।चीनी फ़ेंगसुई के आइटम बेचने वालों के पास तीन टांग का मेढक मिलता है जिसके मुंह में सिक्का दबा होता है,इसका फ़ेस अग्नि कोण में ही करना चाहिये,लेकिन दरवाजे के सामने कभी इसका मुंह नही करना चाहिये। धातु के बने ड्रेगन को भी इस दिशा में लगा सकते है।

नम्बर 2 के लिये भाग्यवर्धक उपाय.

इस नम्बर वालों के लिये ईशान कोण की दिशा किसी भी प्रकार की धन की प्राप्ति के लिये शुभ होती है,घर का दरवाजा अगर इसी दिशा में हो तो बहुत ही उन्नति देने वाला होता है,इस दिशा को किसी भी प्रकार के कचडे से मुक्त रखनी चाहिये,इस दिशा में किसी भी प्रकार की गंदगी के बढने से घर में धन की आवक कम होने लगती है और जो भी घर के सदस्य होते है वे किसी न किसी प्रकार से दुखी रहने लगते है। इस दिशा में कार्प नामकी मछली का पोस्टर लगा कर रखने से धन की आवक और अधिक होती है,कार्प मछली की तस्वीर इस इस फ़ोटो से भी डाउन लोड करने के बाद या प्रिंट करने के बाद लगा सकते है।

(अपने नाम के अनुसार आप इस ईमेल जान सकते है - astrobhadauria@gmail.com )

ठेठ भदावरी कहावतें

आगरा से कानपुर तक ग्वालियर से मैनपुरी तक का क्षेत्र किसी जमाने में भदावर के नाम से जाना जाता था। आबू पर्वत से लेकर भदावर तक का सफ़र बहुत ही कठोर रहा है,कितने ही आये और कितने ही चले गये,कितनों ने कुर्बानियां दी,कितनों ने अपनी आन बान और शान को रखा यह सब ऐतिहासिक बातें है,लेकिन भदावरी कहावतें अपने में बहुत ही मजेदार और लच्छेदार मानी जाती है,कुछ हम भी पुराने जमाने से यानी सन चौसठ से जब से बुद्धि का विकास हुआ था,सुनते आये और वे अपने आप ही याद हो गयीं,किसी दूसरी भाषा की डिक्सनरी में उनकी खोज भी नही की,यह कहावतें ठेठ भदावरी भाषा में कही जाती है।

पुराने जमाने में घर गांवों में कच्चे ही बनाये जाते थे,मिट्टी को पानी से भिगोकर उससे अच्छी तरह से मिलाया जाता था,जिसे भदावरी भाषा में गारा कहा जाता था,इस गारे को फ़ावडे से काट काट कर जो मिट्टी का कच्चा हिस्सा बनाया जाता था उसे मिट्टी का लोंदा कहा जाता था,उस लोंदे को दिवाल में लगाने के बाद जो भाग बना दिया जाता था उसे रद्दा कहा जाता था,एक बार का बनाया गया रद्दा कुछ दिनो के लिये सूखने के लिये छोड दिया जाता था,जिससे दुबारा रद्दा लगाने के बाद गीला रहने के कारण वह गिरे नही यह काम जल्दबाजी में नही किया जा सकता था,बडे ही सोच विचार कर दोनो तरफ़ नाप जोख कर रद्दे को रखा जाता था,कहीं से टेढा होने पर उसे खुरपी या फ़ावडे से छीला जाता था,उस बची हुयी मिट्टी की छीलन को भीगी होने के कारण चपेटा कहा जाता था,उस चपेटा को दुबारा मिट्टी में डालकर अगर रद्दा चला दिया जाता था तो वह अधिक दिन टिकता नही था,और जरा सी बारिस या गर्मी से वह चटक कर गिर जाता था। इस चपेटा की कहावत को गांवों में कहा जाने लगा,जब कोई व्यक्ति अधिक कंजूसी करता था,और जो पास में होता था उसे खर्च नही करके अगर दूसरों से फ़िर भी मांगा जाता था,तो उससे कहा जाता था,-"चपेटो सो समेटो,लपेटो सो बैठो",अर्थात जिसने चपेटा को दिवाल में प्रयोग किया उसने अपने घर द्वार को समेट कर दूसरे स्थान पर जाना पडा और जिसने नई मिट्टी को प्रयोग में लिया वह अपने घर में बैठा है।

अक्सर घरों निकले पानी की नालियां गलियों और दरवाजों से निकलती थी,चिकनी मिट्टी होने के कारण और कचडे के मिल जाने से बदबू भी मारती थी,उन नालियों वाले स्थान को "पुरखनि परिपाटी,नरकाघाटी" अर्थात पूर्वजों से चली आ रही नालियों की दशा नरक जैसी है।

जिन घरों में नही होने के बाद भी अपने को समृद्ध बताने की कोशिश की जाती थी,उनके लिये कहा जाता था-"न नुन्हाडा में नौन,न तिल्हाडा में तेल",अर्थात नमक के घडे में नमक नही है और तेल के घडे में तेल नही है।

जो लोग अपने को बन ठन कर ताव दिखाती मुच्छों को उमेठ कर चलने की आदत थी,और धोती जो पहिनी जाती थी,उसे पहिनने की कला नही आती थी,केवल दिखावा करने के कारण उससे कहा जाता था,-"ऊंचे नीची धोती पहिने,हम जानी कोई क्षत्री,जाति को धनुआ",।

जिन घरों में सास की कदर नही की जाती थी और उसे अपने घर के कामों में ही लगाकर रखा जाता था,दूसरों के घरों में सास जो चलते पुर्जा हुआ करती थी,अपनी बहू को सुना सुना कर कहा करती थी,-"जमाना गया जब बहुये ब्यालू किया करती थीं", अर्थात शाम का भोजन इस घर में बहू को नही मिलने वाला है।

जिन लोगों के लडकों की शादियां बिना दहेज की होती थी,उनकी बहुओं को ताना मारने के लिये कहावत कही जाती थी,-"करनी ना करतूत,आन गली की छूत",अर्थात कुछ न दिया न लिया,केवल दूसरी गली की छूत घर में आगयी।

किसी के घर पर कोई फ़सल अच्छी हो जाती थी,और दूसरों के घर पर वह फ़सल नही होती थी,तो अक्सर गांव में एक दूसरे से मांग कर अपना काम चलाया जाता है,लेकिन किसी किसी के घर पर एक दाना भी बाहर नही जा सकता था,उस घर की मुखिया औरत हमेशा पहरेदारी में हुआ करती थी,उसके लिये कहावत कही जाती थी,-"कमला के बाग में कमल गटा,कमला ठाडी लहें लठा",यानी कमला के बाग में कमलगट्टे पैदा हो गये है,लेकिन उन कमल गट्टों को लेकर कैसे आयें वहां तो कमला लट्ठ लेकर खडी है।

शादी विवाह में पूडियां बनाई जाती थी और साथ में मीठी वस्तु के लिये गोल चूडी के आकार का गुना बनाया जाता था,जो औरत बिना बुलाये शादी के घर में जाती थी,और जो भी महिला संगीत आदि हुआ करता था,उसमें शामिल होकर नाच गाना किया करने के बाद जाती थी,तो उसे मनुहार के रूप में केवल गुना ही दिया जाता था,पूडी केवल अपने जान पहिचान या बुलाये गये मेहमान को ही दी जाती थी,उसके लिये कहावत कही जाती थी,-"कल्लो आयीं कल्लो आयीं तेल के दिना,नाचि गयीं कूदि गयीं ले गयीं गुना".

दीपावली

क्या है लक्ष्मी पूजा (दीपावली)

भारत वर्ष देवभूमि है,इस धरती पर शक्तियों पर हमेशा से विश्वास किया जाता रहा है,शक्ति ही जीवन है,और जब शक्ति नही है तो जीवन भी निरर्थक है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त विभिन्न प्रकार की शक्तियां मानव जीवन के साथ चलती है,शक्तियों के तालमेल से ही व्यक्ति आगे बढता है,नाम कमाता है,प्रसिद्धि प्राप्त करता है,जब शक्ति पर विश्वास नही होता है तो जीवन भी हवा के सहारे की तरह से चलता जाता है,और जरा भी विषम परिस्थिति पैदा होती है तो जीवन के लिये संकट पैदा हो जाते हैं।

किस प्रकार की शक्तियों का होना जरूरी है

हर व्यक्ति के लिये तीन प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करना जरूरी होता है,पहली मानव शक्ति,दूसरी है भौतिक शक्ति,और तीसरी है देव शक्ति। मानव शक्ति भी दिखाई देती है,भौतिक शक्ति भी दिखाई देती है लेकिन देव शक्ति दिखाई नही देती है बल्कि अद्रश्य होकर अपना बल देती है।

कौन देवता किस शक्ति का मालिक है?

भगवान गणेशजी मानव शक्ति के प्रदाता है,माता लक्ष्मी भौतिक शक्ति की प्रदाता है और माता सरस्वती पराशक्ति यानी देव शक्ति की प्रदाता हैं,इन्ही तीन शक्तियों की पूजा का समय दीपावली के दिन प्राचीन काल से माना जाता रहा है।

दीपावली का त्यौहार कार्तिक कृष्ण-पक्ष की अमावस्या को ही मनाया जाता है

भारत मे तीन ऋतुओं का समय मुख्य माना जाता है,सर्दी गर्मी और बरसात,सर्दी की ऋतु कार्तिक अमावस्या से चैत्र की अमावस्या तक,गर्मी की ऋतु चैत्र अमावस्या से श्रावण अमावस्या तक,और बरसात की ऋतु श्रावण अमावस्या से कार्तिक अमावस्या तक मानी जाती है।बरसात के बाद सभी वनस्पतियां आकाश से पानी को प्राप्त करने के बाद अपने अपने फ़लों को दीवाली तक प्रदान करती है,इन वनस्पतियों के भण्डारण के समय की शुरुआत ही दीपावली के दिन से की जाती है,आयुर्वेद में दवाइयां और जीवन वर्धक वनस्पतियों को पूरी साल प्रयोग करने के लिये इसी दिन से भण्डारण करने का औचित्य ऋग्वेद के काल से किया जाता है। इसके अलावा उपरोक्त तीनो शक्तियों का समीकरण इसी दिन एकान्त वास मे बैठ कर किया जाता है,मनन और ध्यान करने की क्रिया को ही पूजा कहते है,एक समानबाहु त्रिभुज की कल्पना करने के बाद,साधन और मनुष्य शक्ति के देवता गणेशजी,धन तथा भौतिक सम्पत्ति की प्रदाता लक्ष्मीजी,और विद्या तथा पराशक्तियों की प्रदाता सरस्वतीजी की पूजा इसी दिन की जाती है। तीनो कारणों का समीकरण बनाकर आगे के व्यवसाय और कार्य के लिये योजनाओं का रूप दिया जाता है,मानव शक्ति और धन तथा मानवशक्ति के अन्दर व्यवसायिक या कार्य करने की विद्या तथा कार्य करने के प्रति होने वाले धन के व्यय का रूप ही तीनों शक्तियों का समीकरण बिठाना कहा जाता है। जैसे साधन के रूप में फ़ैक्टरी का होना,धन के रूप में फ़ैक्टरी को चलाने की क्षमता का होना,और विद्या के रूप में उस फ़ैक्टरी की जानकारी और पैदा होने वाले सामान का ज्ञान होना जरूरी है,साधन विद्या और लक्ष्मी तीनो का सामजस्य बिठाना ही दीपावली की पूजा कहा जाता है।

विभिन्न राशियों के विभिन्न गणेश,लक्ष्मी,और सरस्वती रूप

संसार का कोई एक काम सभी के लिये उपयुक्त नही होता है,प्रकृति के अनुसार अलग अलग काम अलग अलग व्यक्ति के लिये लाभदायक होते है,कोई किसी काम को फ़टाफ़ट कर लेता है और कोई जीवन भर उसी काम को करने के बाद भी नही कर पाता है,इस बाधा के निवारण के लिये ज्योतिष के अनुसार अगर व्यक्ति अपने काम और विद्या के साथ अपने को साधन के रूप में समझना शुरु कर दे तो वह अपने मार्ग पर निर्बाध रूप से आगे बढता चला जायेगा,व्यक्ति को मंदिर के भोग,अस्पताल में रोग और ज्योतिष के योग को समझे बिना किसी प्रकार के कार्य को नही करना चाहिये।आम आदमी को लुभावने काम बहुत जल्दी आकर्षित करते है,और वह उन लुभावने कामों के प्रति अपने को लेकर चलता है,लेकिन उसकी प्रकृति के अनुसार अगर वह काम नही चल पाता है तो वह मनसा वाचा कर्मणा अपने को दुखी कर लेता है। आगे हम आपको साधन रूपी गणेशजी,धन रूपी लक्ष्मी जी और विद्या रूपी सरस्वतीजी का ज्ञान करवायेंगे,कि वह किस प्रकार से केवल आपकी ही प्रकृति के अनुसार आपके लिये काम करेगी,और किस प्रकार से विरोधी प्रकृति के द्वारा आप को नेस्तनाबूद करने का काम कर सकती है।
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घर की रीचार्जिंग

घर व्यवसाय स्थान धार्मिक स्थान के ईशान में गंदगी

ईशान दिशा में उगते सूर्य की किरणे सकारात्मक सोच देती है,सकारात्मकता के अन्दर अगर गंदगी मिलती है तो गंदे विचारों के प्रति सकारात्मक सोच मिलेगी,जैसे माता पिता की सेवा करना सकारात्मक अच्छी सोच है लेकिन इस सोच में गंदगी मिल जाती है तो माता पिता से क्या प्राप्त किया जा सकता है,कैसे प्राप्त किया जा सकता है इसके प्रति सोच शुरु हो जायेगी,जब माता पिता किसी बात को नही मानेगे तो सकारात्मक गंदी सोच में उनके साथ मारपीट और अत्याचार किये जायेंगे,जब वे किसी प्रकार से नही मानेंगे तो उनके पास हो भी साधन धन आदि है वे उनसे जबरदस्ती लिये जायेंगे,इसलिये कहा गया है कि निवास के ईशान में अगर कोई गंदगी है तो बच्चे माता पिता को जूते मारते है। इस गंदगी को अगर किसी धर्म स्थान के ईशान में इकट्ठा किया जाता है तो उस धर्म स्थान में बजाय पूजा पाठ या धार्मिक कामों के चरित्रहीनता का काम अधिक होता है,इसी प्रकार से जिस व्यवसाय स्थान फ़ैक्ट्री आदि के ईशान में अगर कोई गंदगी का स्थान है तो काम करने वाले लोग ही मालिक की बात नही मानते है और किसी न किसी प्रकार का कारण बनाकर मालिक को तन से या धन से या अन्य कारण से परेशान करने के लिये जिम्मेदार माने जाते है। ईशान में गंदगी घर की महिलाओं पर सबसे अधिक असर कारक होती है इसका कारण है कि वे ही सबसे अधिक घर के अन्दर निवास करती है,और इस असर के कारण उनके अन्दर दुश्चरित्रता का भी होना पाया जाता है,उनके विचार हमेशा भटकाव वाले रास्ते की तरफ़ जाते रहते है। इसी प्रकार से सोने वाले कमरे में जूते चप्पल और झाडू आदि ईशान दिशा में रखी गयी है तो सोने वाले व्यक्ति के दिमाग में उत्तेजना और गलत बातें आनी शुरु हो जायेंगी,महिलाओं के अन्दर बुरी भावना भरने लगेंगी। सकारात्मक इनर्जी मिलने के कारण जो भावनायें उनके अन्दर आयेंगी,उन भावनाओं को वे करके भी दिखा देंगी। मुझे याद है कि एक बार जिला मैनपुरी उत्तर प्रदेश के एक गांव उमरैन के गुप्ताजी अपने यहां मुझे लेकर गये थे,वे मुझे एरवा कटरा नामक स्थान पर भी लेकर गये,वहां उन्होने मुझे एक मकान की तरफ़ इशारा करके बताया कि इस घर के लोग कैसे होंगे ? मैने उस घर के बाहर ईशान में लेट्रिन बनी देखी तथा उसी से सटा दरवाजा था,साथ ही उस लेट्रिन के साथ ही कुट्टी काटने की मशीन लगाई गयी थी,एक तख्त दरवाजे के बायें यानी अग्नि दिशा की तरफ़ पडा था। मैने उस घर की स्त्री और पुरुषों को चरित्रहीन बताया,तथा यह भी बताया कि इस घर में जो भी लोग रहते होंगे वे धर्म के नाम पर चरित्रहीनता की तरफ़ जा रहे होंगे,घर के बुजुर्ग को सभी कुछ पता होने के बाद वह कुछ नही कर पा रहा होगा। गुप्ताजी ने मुझे धन्यवाद देते हुये कहा कि यह बात बिलकुल सही है,उस घर के मुखिया को लकवा मार गया है एक लडका है जो किसी महिला को भगाकर लाया है और घर में उस महिला ने चरित्रहीनता को फ़ैला रखा है,उसकी तीन बहिने जो कहने को तो स्कूल में पढाने का काम करती है लेकिन उनके बारे में कहा जाता है कि वे कभी किसी बदमाश के साथ तो कभी किसी बदमाश के साथ देखी जाती है।

घर की गंदगी को रखने का स्थान

मैने कहा है कि घर में चार वर्ण की चार दिशा है,ईशान को ब्राह्मण की दिशा,दक्षिण को क्षत्रिय की दिशा,उत्तर को वैश्य की दिशा और पश्चिम को शूद्र की दिशा कहा जाता है। घर की गंदगी को पश्चिम दिशा में रखना अच्छा उपाय है लेकिन जिनके दरवाजे पश्चिम दिशा में ही है उन्हे दरवाजे से निकलते वक्त बायीं तरफ़ गंदगी का स्थान बना लेना चाहिये,इसके अलावा अन्य दिशाओं की फ़ेसिंग वाले मकान मालिक या व्यवसाय स्थान के मालिक इसी दिशा में दक्षिण पश्चिम दिशा की तरफ़ गंदगी को रखने का स्थान बना सकते है। गंदगी को जिस दिशा या कोण में रखा जायेगा उस दिशा की सकारात्मक इनर्जी गंदगी से पूर्ण होने लगेगी। जैसे वायव्य में गंदगी को रखा गया है तो घर की प्रसिद्धि गंदी होने लगेगी,बनाये जाने वाले उत्पादन को बेचने में केवल इसलिये ही परेशानी आयेगी क्योंकि उस के प्रति लोगों के अन्दर गंदी भावना भरी होगी,उत्तर दिशा में गंदगी होने पर जो भी धन घर में आयेगा वह गंदगी से पूर्ण होगा यानी या तो उसे झूठ बोलकर लाया जा रहा होगा या फ़िर किसी प्रकार की गंदी बातें धन के प्रति की जाती होंगी,दक्षिण दिशा में गंदगी रखने के कारण जो भी घर की सुरक्षा है या जो भी घर में भोजन बनता है उसके अन्दर कोई ना कोई गंदी बात होगी,अथवा जो भी घर के सदस्य है वे किसी ना किसी कारण से खून के इन्फ़ेक्सन से जुडे होंगे या खून की इन्फ़ेक्सन की बीमारियां होंगी। अग्नि कोण में गंदगी होने से घर की महिलायें किसी न किसी प्रकार की प्रसव वाली बीमारियों से जुडी होंगी,नैऋत्य में गंदगी होने से घर की महिलायें किसी न किसी प्रकार की अचानक पैदा होने वाली बीमारी से जुडी होंगी,घर के बीच में गंदगी होने से जो भी घर के सदस्य होंगे वे किसी न किसी प्रकार से गंदे विचार सोचने वाले होंगे और जो भी रिस्तेदारी वाली बातें होंगी वे किसी न किसी कारण से आशंका या भ्रम की बजह से परेशान करने वाली होंगी।

घर की गंदगी के निस्तारण का समय

गहों के हिसाब से और सामान्य रूप से समझा जाये तो दिन का स्वामी सूर्य होता है और रात का स्वामी शनि को माना जाता है। सूर्य कर्म करने के लिये ताकत देता है और शनि कर्म करने के बाद थकान को उतारने का कारक होता है शनि सेवा वाले कामों को करता है और सूर्य निर्माण तथा प्रगति के काम करता है। जो लोग रात की नींद पूरी नही कर पाते है वे किसी न किसी बीमारी के कारण शनि के समय यानी बुढापे में भारी कष्ट उठाते है। अक्सर आज के भौतिक युग में लोग रात की पारियों में काम करते है और दिन के अन्दर अपनी नींद निकालने का काम करते है,उन लोगों को जब खून की गर्मी समाप्त होती है तो वे थकान महसूस करने लगते है और उनका शरीर किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। सूर्योदय से पहले शरीर और घर की गंदगी को निकालने का समय होता है,जिससे जो भी सूर्य की सकारात्मक किरणें जमीन की सतह से ऊंची होती हुयी ऊपर की तरफ़ बढे वे शरीर और घर के लिये सकारत्मकता को भर जायें। जो लोग सुबह सूर्योदय से पहले नहा धोकर सूर्य दर्शन का मानस बनाकर चलते है और सूर्य को जल आदि देते है वे घर के अन्दर सबसे अधिक बलशाली और समय पर काम को करने वाले माने जाते है,कहा जाता है कि जो लोग सुबह की सूर्य की किरणें प्राप्त कर लेते है वे दिन में कोई ऐसा काम जरूर करते है जो कोई जीवन में भी पूरा नही कर पाता है,उनके अन्दर अथाह इनर्जी इकट्ठी होती रहती है और वे किसी समय में अपना नाम उसी इनर्जी के सहारे बहुत ऊंचा बना लेते है। घर के अन्दर झाडू बर्तन पौंछा आदि सूर्योदय से पहले हो जाना चाहिये,बच्चे जल्दी जागकर अपने दिनचर्या वाले कामों को पूरा कर लेते है वे जल्दी से अपने को आगे बढा ले जाते है उनके शरीर को कोई बीमारी नही परेशान करती है और वे बिना कुछ अलग से प्रयास किये अधिक से अधिक नम्बरों से पास होते देखे गये है। घर की गंदगी सुबह सूर्योदय से पहले निकालने से रात के अन्दर शनि की गंदगी सुबह की सूर्य की सकारात्मक इनर्जी में नही मिलती है,और घर के अन्दर वातावरण सकारात्मक रहता है।

सुबह की पूजा पाठ

आप जिस भी धर्म से सम्बन्धित है और आपके जो भी भगवान है अगर आप सूर्योदय के समय भगवान की पूजा आराधना और ध्यान आदि लगा रहे है तो जरूर ही भगवान आपको उचित फ़ल प्रदान करेंगे,जो लोग सुबह जाकर मन्दिर में पूजा करते है उनकी इच्छा जरूर पूरी होती है। मैने इस कारण को खुद अंजवा कर देखा है,मुझे अक्सर बैठे रहने के कारण पेट की बीमारी होने लगी थी,खाना पचता नही था और मै सिर दर्द से परेशान रहा करता था,मैं रामेश्वरम की यात्रा पर गया,वहा सुबह ही मणि दर्शन होते है सुबह सात बजे के बाद मणि दर्शन बन्द कर दिये जाते है उनके दर्शन करने के लिये नहा धोकर सुबह पांच बजे ही तैयार होना पडता है जब कहीं जाकर मंदिर में लाइन लगाकर दर्शन होते है,वहां जाकर मैने सुबह ही नहा धोकर मणि दर्शन करने के लिये चला गया,उनके दर्शन करने के दौरान मैने मणि रूप में भगवान शिव से आराधना की मैं सिर दर्द से बहुत परेशान हूँ,अचानक होता है और इतना होता है कि लगता है कि सिर को फ़ोड डाला जाये,शिवजी ने मेरी सुनी और उस दिन के बाद मेरे सिर में दर्द नही हुआ,लेकिन एक बात और शुरु कर दी थी,कि मैं सुबह सूर्योदय से पहले ही नहा धोकर तैयार होकर पूजा पाठ में लग जाता हूँ चाहे मुझे कितना ही कम्पयूटर पर लिखना पडे।
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रामेश्वर धाम की यात्रा

कहते है कि काशी यात्रा तभी पूरी होती है जब रामेश्वर की पूजा और धनुष कोटि में समुद्र स्नान करें। इससे मालुम होता है कि काशी और रामेश्वर की महिमा समान है,मतलब भी यही निकलता है कि उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य भी दोनो धर्म स्थानों ने किया है। जितनी पुरानी रामायण है उतना ही पुराना रामेश्वर धाम है।

सेतु शब्द का अर्थ पुल से लिया जाता है। भगवान श्रीरामचन्द्र ने लंका जाते समय तथा समुद्र को पार करने के लिये इसी स्थान पर पुल बनाने के लिये धनुष से इशारा किया था। इसलिये समुद्र संगम का स्थान का नाम धनुष कोटि रखा गया,कुछ मतालम्बियों के अनुसार जब श्रीरामचन्द्र जी लंका की विजय प्राप्त करने के बाद वापस अयोध्या के लिये चले तो स्वर्ण की चाह से लोगों का लंका की तरफ़ भागना न हो इसलिये उन्होने अपने धनुष से इस स्थान के पुल को तोड दिया था,जो भी हो आज भी यह स्थान अपने में एक अनौखी मान्यता रखता है।धनुष कोटि में स्थान करने के बाद ही रामेश्वर के दर्शन करने की मान्यता है लेकिन लोग पहले रामेश्वर के दर्शन करने के बाद घूमने के उद्देश्य से ही धनुष कोटि जाते है।  धनुष कोटि में पितृ ऋण चुकाने और अस्थि विसर्जन का स्थान भी है।

रामेश्वर,रामलिंगम,रामनाथ आदि कई नामों से इस स्थान को पुकारा जाता है। इस स्थान पर राम से आराधित शिवजी की पूजा अर्चना की जाती है। रामेश्वरम के बारे में यहाँ के निवासियों के अन्दर एक कहानी कही जाती है कि जब श्रीराम रावण का वध करने के बाद वापस इस स्थान पर आये तो गंधमादन पर्वत पर स्थित तपस्वियों ने राम पर ब्रह्म हत्या जैसे दोष को बताया,इस पाप से मुक्त होने के लिये शिवलिंग की स्थापना करने के बाद उसकी पूजा अर्चना करने के बाद इस दोष से मुक्ति का उपाय बताया। लेकिन रेत से शिवलिंग की स्थापना कैसे की जाये,उसी समय हनुमानजी को कैलाश पर्वत से शिवलिंग लाने के लिये हनुमान जी को भेजा गया। ब्राह्मणों के द्वारा शिवलिग की स्थापना का मुहूर्त निकले जाने से बचने के लिये जल्दी शिवलिंग की स्थापना के लिये कहा गया,उसी समय श्रीसीता जी ने रेत से ही शिवलिंग को बनाकर उसकी स्थापना कर दी। कुछ समय बाद जब हनुमान जी कैलास से शिवलिंग को लेकर आये तो वहाँ रेत के शिवलिंग को स्थापित दखकर उन्हे गुस्सा आया,श्रीसीताजी ने कहा कि इस रेत से बने शिवलिंग को हटा सको तो हटा दो,हनुमान जी ने पूरी ताकत से उस रेत से बने शिवलिंग को हटाने का प्रयास किया लेकिन उसे हटा नही पाये,उनके लाये गये शिवलिंग को बाद में मुख्य शिवलिंग की बायीं तरफ़ स्थापित कर दिया गया। आज भी हनुमान जी के लाये शिवलिंग की पूजा पहले होती है उसके बाद ही मुख्य शिवलिंग की पूजा होती है। भारत के द्वादस शिवलिंगों में यह एक शिवलिंग माना जाता है।

रामेश्वर एक छोटा द्वीप है,यह भारत की भूमि से हटकर दक्षिण-पूर्व दिशा (अग्निकोण) में स्थापित है। मण्डपम और पम्बन के बीच में समुद्र में पुल बनाकर रेलवे और सडक मार्ग से इस द्वीप को जोडा गया है। समुद्र के अन्दर से रेलवे मार्ग से गुजरने पर एक अजीब सी अनुभूति होती है,इस रेलवे पुल को बीच से जहाजों के आने और जाने के समय खोला और बन्द भी किया जाता है। रामेश्वरम से धनुष कोटि के लिये भी रेलवे लाइन बिछायी गयी थी,सन 1964 ई. में आये हुये समुद्री जलजले से धनुष कोटि और बिछायी गयी रेलवे लाइन तथा रामेश्वरम से धनुष कोटि के बीच में बनाये गये सभी रेलवे स्टेशन नष्ट हो गये थे,साथ ही लगभग बीस हजार लोगों की मौत भी उस जलजले से हुयी थी।

रामेश्वरम के निवासियों का जीवन मंदिर और आने वाले यात्रियों पर अधिक निर्भर है। इसके अलावा भी तमिलनाडु सरकार ने यहाँ के निवासियों के लिये काफ़ी सुविधायें दी है। आने जाने वाले यात्रियों के लिये चेन्नई से रामेश्वरम के लिये सीधी रेलगाडियां चलाईं गयी है,इसके अलावा प्राइवेट यात्रा कम्पनियां भी अपनी अपनी सेवाये बसों और कारों से देती है। सुबह और शाम को चेन्नई से कोयमबेट नामक अन्तर्राजीय बस अड्डा से बसे सीधे रामेश्वरम को मिलती है। रामेश्वरम के लिये उक्त बस अड्डा से मदुरै और त्रिचनापल्ली से होकर भी यात्रा की जाती है। मदुरै और त्रिचनापल्ली से वातानुकूलित बसे भी तमिलनाडु सरकार ने चला रखीं है। वाराणसी के लिये भी रेलगाडी सीधी चलती है। रामेश्वरम की बनावट भगवान विष्णु के हाथ में स्थित दक्षिणावर्ती शंख के रूप में होने से भी अपनी मान्यता रखती है।

मन्दिर में देखे जाने वाले स्थान

मंदिर में देखने लायक स्थानों में सबसे पहले मुख्य शिवलिंग के सामने नंदी जी की वृहद मूर्ति है,नन्दी जी के ठीक सामने खडे होने पर दाहिनी तरफ़ विघ्नेश्वर गणेश जी की मूर्ति है,इनकी सूंड दक्षिणा वर्ती है,सबसे पहले इन्ही की पूजा होती है और शिवजी के दर्शन के लिये अनुज्ञा लेनी पडती है,उसके बाद बायी तरफ़ कार्तिकेयजी की मूर्ति है,जिन्हे दक्षिण भारत में सुब्रह्मण्य स्वामी के नाम से जाना जाता है,मुरु भगवान के नाम से पुकारे जाने वाले कार्तिकेय जी की पूजा करने से उत्तर भारत की महिलायें डरती है,कारण वे हमेशा ही ब्रह्मचारी के रूप में अपनी उपस्थिति देते है।

रामनाथ स्वामी मंदिर

नन्दी के सामने ही श्री सीताजी के द्वारा बनाया गया शिवलिंग है,श्रीरामचन्द्रजी के हाथों के द्वारा पूजित इस शिवलिंग की महत्ता सबसे अधिक है,इसी मंदिर में रामदरबार की स्थापना भी है,हनुमानजी अपने हाथों से इस शिवलिंग को पकडे खडे दिखाये गये है। सुग्रीव के द्वारा भी विनीत भाव में इस लिंग को पकडे दिखाया गया है,साथ ही ऊपर के तीन मण्डपों में हनुमान,अगस्त्य ऋषि और गन्धमादन लिंग की भी स्थापना है।

माता पार्वती का मंदिर

मंदिर के दाहिनी तरफ़ माता पार्वती का मन्दिर है,इसके अन्दर जाने से पहले अष्टल्क्ष्मी की मूर्तिया काले रंग में बनी है। इसी मंदिर में श्रीचक्र की स्थापना है,माता पार्वती के पीछे दाहिनी तरफ़ संतान गणपति है तथा सामने नन्दी जी स्थापित है लोग अपनी अपनी कामनायें इनके कान में कह कर जाते है और पूर्ण होने पर उनके लिये प्रसाद आदि चढाने आते है। पार्वती जी के बायीं तरफ़ शयन गृह है जहां रोजाना शाम को रामनाथ मंदिर से सोने की मूर्ति को देवी की मूर्ति के बगल में झूले पर रखा जाता है और सुबह जल्दी उन्हे लेजाकर वापस रामनाथ मंदिर में रखा जाता है। यहीं विशालाक्षी माता का विग्रह भी पूजा के लिये रखा गया है। सप्त मातृका और नवनिधि का पूजन भी यहीं होता है।

इसके अलावा एकादश रुद्र का स्थान इसी मंदिर में है और मुख्य मंदिर के वायव्य में इनका स्थान दिया गया है। यही भगवान विष्णु का शेषनाग पर शयन का और गरुड जी को द्वारपाल के रूप में तथा माता लक्ष्मी को शयन के समय उनके पैरों के पास बैठा दिखाया गया है।

बाइस कुंडो के स्नान में सभी तीर्थों को सम्मिलित किया गया है। सबसे पहले महालक्ष्मी तीर्थ है उसके बाद सावित्री गायत्री और सरस्वती तीर्थ है। महालक्ष्मी तीर्थ में स्नान करने के बाद कुबेर ने नव निधियों को पाया था,यही तपस्या करने के बाद धर्मपुत्र ने राजसूयज्ञ के लिये धन को प्राप्त किया था। इसके बाद माधव तीर्थ है,जिसके अन्दर गन्धमादन कवाक्ष कव नल नील तीर्थ है,इन सभी तीर्थों के स्नान करने के दौरान एक सौ आठ शिवलिंग के दर्शन होते है इनके अन्दर विभिन्न आकार की जललहरी विभिन प्रकार के लोगों के जीवन के बारे में सूचना देतीं है। इसके बाद चक्र तीर्थ है जहां जाने अन्जाने में किये गये पापों से मुक्ति मिलती है तथा शंख तीर्थ में जाने अन्जाने से धोखा होने या छलकपट होने से मिले पाप से मुक्ति मिलती है। कहते है इस तीर्थ के स्नान के बाद अगर कोई फ़िर भी जानबूझ कर छल कपट करता है तो उसे शरीर की हड्डियों के गलने का रोग पैदा हो जाता है,और वह सूख कर शंख जैसा ही दिखाई देने लगता है। ब्रह्म हत्या विमोचन तीर्थ में स्नान करने के बाद मानव हत्या जैसे पापों से मुक्ति मिलती है,कहा जाता है कि भगवान श्रीराम ने रावण की हत्या से दोष मुक्ति इसी तीर्थ में स्नान करने से प्राप्त की थी। इस तीर्थ में स्नान करने से पहले मानसिक संकल्प लेना पडता है कि जानबूझ कर किसी प्रकार से मनसा वाचा कर्मणा मनुष्य की हत्या नही की जायेगी। इसके बाद सूर्य तीर्थ में स्नान किया जाता है जिससे पिता के प्रति किसी प्रकार के ऋण की मुक्ति मिलती है तथा चन्द्र तीर्थ में स्नान करने से माता और बडी बहिन के प्रति किसी भी ऋण से मुक्ति मिलती है। गंगा तीर्थ और यमुना तीर्थ भी अपनी अपनी मान्यता रखते है। गया तीर्थ भी इसी के अन्दर है इन सब तीर्थों में स्नान करने के बाद गर्मी वाले रोग पागलपन शीत रोग मानसिक रोगों से मुक्ति मिलती है। साध्यामृत तीर्थ में स्नान करने के लिये स्नान करवाने वाले व्यक्ति से कहना पडता है,इस तीर्थ का पानी अन्य तीर्थों से साफ़ सुथरा रहता है। सर्वतीर्थ में स्नान करने से सभी जाने अन्जाने में किये गये पापों से मुक्ति मिलती है। इस तीर्थ की स्थापना जगदगुरु आदि शंकराचार्य ने की थी,साथ ही मान्यता है कि सबसे पहले इस तीर्थ की स्थापना सुचरित्री नामक ऋषि ने सभी जलदेवताओं को बुलाकर इस तीर्थ में स्थापित किया था। आज भी मान्यता है कि इस तीर्थ के स्नान को जाते समय अगर जललहरी से अपने आप जल गिरने लगे तो इस तीर्थ का पुण्य मिलने में कमी नही रहती है। कोटि तीर्थ के जल से ही शिवलिंग को स्नान करवाया जाता है। सेतु माधव तीर्थ के जल से स्वर्ण कितना भी काला हो वह अपने आप चमकने लगता है। सभी तीर्थों का जल स्नान करते वक्त पीने से कालान्तर के लिये शरीर में सभी पानी अपना अपना कार्य करते है,साथ ही सभी तीर्थों का जल अलग अलग स्वाद का मिलता है।

पानी और हमारा घर

घर को बाद में बनवाया जाता है पहले पानी की व्यवस्था देखी जाती है। आजकल कम से कम लोग ही प्राकृतिक पानी का उपयोग करते है पानी अधिकतर या तो सरकारी स्तोत्रों से सुलभ होता है या फ़िर अपने द्वारा ही बोरिंग आदि करवाने से प्राप्त होता है। भारत में पानी के लिये हिमाचल काश्मीर और उत्तराखण्ड के साथ बंगाल बिहार आसाम नागालेंड तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ समुद्र तटीय स्थान पानी की सुलभता से पूर्ण है। अधिकतर भागों से स्वच्छ जल की प्राप्ति होती है और अधिकतर भागों में पानी बहुत कीमती हो जाता है जैसे राजस्थान के पश्चिमी जिलों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और मध्य प्रदेश तथा छत्तीस गढ के साथ उडीसा आदि स्थानों में पानी की कमी मिलती है,कहीं कहीं पानी तो पांच सौ फ़ीट के नीचे से बोरिंग के द्वारा प्राप्त किया जाता है।

बिना पानी के क्षेत्रों के लोगों का स्वभाव रूखा होता है,पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों के लोगों का स्वभाव मधुर भी होता है और दिमागी भी होता है। उत्तर में भारी पानी मिलता है तो दक्षिण में पानी हल्का मिलता है। जितनी गहराई से पानी को प्राप्त किया जाता है उतने ही मिनरल अधिक पानी के अन्दर पाये जाते है और जितना पानी उथला मिलता है उतना ही पानी के अन्दर कीटाणुओं का मिलना पाया जाता है। अधिकतर स्थानों में नमी के कारण लोगों का रहना मुश्किल होता है और अधिकतर स्थानों में अगर बरसात में अच्छा पानी बरस जाये तो लोग बेघर भी बहुत जल्दी हो जाते है।

मकान में पानी का स्थान सभी मतों से ईशान से प्राप्त करने को कहा जाता है और घर के पानी को उत्तर दिशा में घर के पानी को निकालने के लिये कहा जाता है,लेकिन जिनके घर पश्चिम दिशा की तरफ़ अपनी फ़ेसिंग किये होते है और पानी आने का मुख्य स्तोत्र या तो वायव्य से होता है या फ़िर दक्षिण पश्चिम से होता है,उन घरों के लिये पानी को ईशान से कैसी प्राप्त किया जा सकता है,इसके लिये वास्तुशास्त्री अपनी अपनी राय के अनुसार कहते है कि पानी को पहले ईशान में ले जायें,घर के अन्दर पानी का इन्टरेन्स कहीं से भी हो,लेकिन पानी को ईशान में ले जाने से पानी की घर के अन्दर प्रवेश की क्रिया से तो दूर नही किया जा सकता है,मुख्य प्रवेश को महत्व देने के लिये पानी का घर मे प्रवेश ही मुख्य माना जायेगा।

पानी के प्रवेश के लिये अगर घर का फ़ेस साउथ में है तो और भी जटिल समस्या पैदा हो जाती है,दरवाजा अगर बीच में है तो पानी को या तो दरवाजे के नीचे से घर में प्रवेश करेगा,या फ़िर नैऋत्य से या अग्नि से घर के अन्दर प्रवेश करेगा,अगर अग्नि से आता है तो कीटाणुओं और रसायनिक जांच से उसमे किसी न किसी प्रकार की गंदगी जरूर मिलेगी,और अगर वह अग्नि से प्रवेश करता है तो घर के अन्दर पानी की कमी ही रहेगी और जितना पानी घर के अन्दर प्रवेश करेगा उससे कहीं अधिक महिलाओं सम्बन्धी बीमारियां मिलेंगी।

पानी को उत्तर दिशा वाले मकानों के अन्दर ईशान और वायव्य से घर के अन्दर प्रवेश दिया जा सकता है,लेकिन मकान के बनाते समय अगर पानी को ईशान में नैऋत्य से ऊंचाई से घर के अन्दर प्रवेश करवा दिया गया तो भी पानी अपनी वही स्थिति रखेगा जो नैऋत्य से पानी को घर के अन्दर लाने से माना जा सकता है। पानी को ईशान से लाते समय जमीनी सतह से नीचे लाकर एक टंकी पानी की अण्डर ग्राउंड बनवानी जरूरी हो जायेगी,फ़िर पानी को घर के प्रयोग के लिये लेना पडेगा,और पानी को वायव्य से घर के अन्दर प्रवेश करवाते है तो घर के पानी को या तो दरवाजे के नीचे से पानी को निकालना पडेगा या फ़िर ईशान से पानी का बहाव घर से बाहर ले जायेंगे,इस प्रकार से ईशान से जब पानी को बाहर निकालेंगे तो जरूरी है कि पानी के प्रयोग और पानी की निकासी के लिये ईशान में ही साफ़सफ़ाई के साधन गंदगी निस्तारण के साधन प्रयोग में लिये जानें लगेंगे। और जो पानी की आवक से नुकसान नही हुआ वह पानी की गंदगी से होना शुरु हो जायेगा।

पूर्व मुखी मकानों के अन्दर पानी को लाने के लिये ईशान को माना जाता है,दक्षिण मुखी मकानों के अन्दर पानी को नैऋत्य और दक्षिण के बीच से लाना माना जाता है,पश्चिम मुखी मकानों के अन्दर पानी को वायव्य से लाना माना जाता है,उत्तर मुखी मकानों के अन्दर भी पानी ईशान से आराम से आता है,इस प्रकार से पानी की समस्या को हल किया जा सकता है।

जिन लोगों ने पानी को गलत दिशा से घर के अन्दर प्रवेश दे दिया है तो क्या वे पानी की खातिर पूरी घर की तोड फ़ोड कर देंगे,मेरे हिसाब से बिलकुल नही,इस प्रकार की कभी भूल ना करे,कोई भी कह कर अपने घर चला जायेगा लेकिन एक एक पत्थर को लगाते समय जो आपकी मेहनत की कमाई का धन लगा है वह आप कैसे तोडेंगे,उसके लिये केवल एक बहुत ही बढिया उपाय है कि नीले रंग के प्लास्टिक के बर्तन में नमक मिलाकर पानी को घर के नैऋत्य में रख दिया जाये,और इतनी ऊंचाई पर रखा जाये कि उसे कोई न तो छुये और न ही उसे कभी बदले,उस बर्तन का ढक्कर इतनी मजबूती से बन्द होना चाहिये कि गर्मी के कारण पानी का आसवन भी नही हो,अगर ऐसे घरों में पानी की समस्या से दुखी है तो यह नमक वाला पानी रख कर देंखे,आपको जरूर फ़ायदा मिलेगा,इसके अलावा घर के वायव्य में ईशान में पूर्व में नैऋत्य और दक्षिण के बीच में एक्वेरियम स्थापित कर दें तो भी इस प्रकार का दोष खत्म हो जाता है।

पानी को उतना ही फ़ैलायें जितना कि बहुत ही जरूरी हो,पानी अमूल्य है पानी ही जीवन है,बरसात के पानी को स्टोर करने के लिये घर के बीच में एक बडा टेंक बना सकते है,इस तरह से ब्रह्म-स्थान भी सुरक्षित हो जायेगा और आसमानी आशीर्वाद भी घर के अन्दर हमेशा मौजूद रहेगा,इस प्रकार के स्थान को ईशान वायव्य और पश्चिम दिशा में बना सकते है।

बरसात के पानी को निकालने के लिये जहां तक हो उत्तर दिशा से ही निकालें,फ़िर देखें घर के अन्दर धन की आवक में कितना इजाफ़ा होता है,लेकिन उत्तर से पानी निकालने के बाद आपका मनमुटाव सामने वाले पडौसी से हो सकता है इसके लिये उससे भी मधुर सम्बन्ध बनाने की कोशिश करते रहे।

विवाह में राशियों की पूरकता (3)

पिछले पेज मे मैने मेष राशि का वर्णन अन्य राशियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध के लिये प्रस्तुत किया था इस पेज में मैं आपको वृष राशि का वैवाहिक सम्बन्ध अन्य राशियों से करने और उनसे मिलने वाले फ़लों के लिये बताऊँगा।
  • वृष राशि धन और भौतिक कारणों तथा कुटुम्ब के मामले में अपनी पहिचान रखने वाली राशि कही जाती है,इस राशि का स्वभाव बैल की तरह से होता है और यह राशि भचक्र के दूसरे भाव की कारक है। इस राशि का सम्बन्ध अगर मेष राशि के जातकों से कर दिया जाता है तो जातक एक दूसरे के लिये पूरक नही हो पाते है,जैसे मेष राशि का प्रमुख कारक मनुष्य शरीर से माना जाता है तो यह राशि अपने जीवन काल में जीवन साथी के प्रति सही नही मानी जाती है। मेष राशि वाला इस राशि के जातक से केवल धन और भौतिक सुखों की आशा ही करता है,उसे अन्य बातों से कोई लेना देना नही होता है,जातक इस राशि वालों के लिये जीवन भर अपने शरीर धन कुटुम्ब आदि के मामले में केवल खर्च करने के लिये माना जाता है और मेष राशि वाला जातक इस राशि से सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिये ही सम्बन्ध रखता है जैसे ही जीवन साथी का स्वार्थ पूरा होता है जातक या तो इस राशि वाले की अवहेलना करने लगता है अथवा किसी न किसी कारण से अपने को दूर रखता है। अगर सामाजिक या शारीरिक बल इस राशि वाले में अधिक होता है तो जीवन साथी का जीवन से दूर जाना निश्चित माना जाता है,वह शरीर से दूर नही जाता है तो मन से जरूर दूर चला जाता है। अगर शादी के पहले इस राशि के जीवन साथी के साथ कोई बहुत ही बडी बौद्धिक ताकत होती है तो इस राशि वाले सम्बन्ध बनाने के बाद उसकी बौद्धिक शक्ति बेकार सी हो जाती है वह अपने को बिलकुल असहाय समझने लगता है। पाराशर ऋषि के अनुसार हर भाव का बारहवां भाव उसका विनाशक होता है उस का प्रभाव भी इस राशि के जातकों पर प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। इस राशि का जीवन साथी पहले तो अपने पराक्रम को इस राशि वाले की धन सम्पत्ति से मानता है,दूसरे इस राशि वाले की कमन्यूकेशन शैली का बडे आराम से फ़ायदा लेता है,उसके द्वारा बोल चाल से कमाया गया धन या बोलचाल के द्वारा बनाई गयी प्रतिष्ठा को अपने हित के लिये प्रयोग करता है। अक्सर वृष राशि स्वभाव पेट भरा होने पर अधिक की चाहत नही करने वाला होता है लेकिन बार बार कोई इस प्रकार का जीवन साथी अगर अपनी जरूरतों को आगे पीछे करने वाला होता है तो इस राशि वाले जातकों को काफ़ी मेहनत करनी पडती है और समय से पहले कार्य की अधिकता से जातक की कमर झुक जाती है अथवा वह किसी बडी बीमारी से ग्रस्त होकर कालकवलित हो जाता है। मेष राशि वाला जीवन साथी इस राशि के भावनात्मक प्रभाव को अपने मन के अनुसार खर्च करने वाला होता है,उसी भावनात्मक प्रभाव के अन्दर रहने की कोशिश करता है,जो इस राशि वाले ने कहा है उसके लिये वह अडिग रहना चाहता है। और इस राशि वाले की बात कभी कम हो सकती है कभी अधिक इस बात को वह अपनी इज्जत मानकर अपने भावों को घर से बाहर रहने और अपने द्वारा अन्य सम्बन्ध बनाने के वक्त प्रयोग करता है।
  • वृष राशि वाले का सम्बन्ध वृष राशि वाले जीवन साथी से होने पर दोनो जीवन एक दूसरे को हराने के चक्कर में रहते है लेकिन दोनो ही अपने अपने स्थान पर मजबूत होने के कारण एक दूसरे को हरा नही पाते है,अक्सर एक ही राशि का सम्बन्ध होने के बाद जो दुख एक पर आता है वही दुख किसी भी रूप में दूसरे पर भी आना शुरु हो जाता है।
  • वृष राशि का समबन्ध अगर मिथुन राशि वाले से होता है तो परिणाम में मेष राशि वाले जैसा ही प्रभाव सामने आता है.

विवाह मिलान में राशियों की पूरकता (2)

पिछले पेज मे मैने आपको मेष राशि से तुला राशि पर्यन्त भेद जो मेरे सामने अधिकतर आते रहे उनके वारे में बताया आगे आपको मेष राशि से अन्य राशियों के बारे में किये जाने वाले वैवाहिक सम्बन्धों के लिये समझाने की कोशिश करूंगा।
  • मेष राशि से वृश्चिक राशि वालों के सम्बन्ध में जो बातें सामने आयीं उनमे अधिकतर वर या वधू ने अपने जीवन साथी को अपमान की द्रिष्टि से देखा,किसी न किसी प्रकार के जोखिम वाले काम करने के लिये उत्प्रेरित किया,मृत्यु के बाद की सम्पत्तियों को प्राप्त करने बीमा करवाने लोगों से धन लेकर उसे वापस नही करने के प्रति अथवा जासूसी और जमीनी काम करने के लिये आगे बढाने का काम किया। वर या वधू ने सामाजिक सम्बन्धों को कम निभाया और शारीरिक सुख के लिये अपने अपने शरीरों को बरबाद किया,शरीर के सम्बन्धों को अधिक बनाने के कारण एक के शरीर में बीमारियां घर करने लगीं और एक दिन वह व्यक्ति वर या वधू विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होकर या तो बिलकुल नकारात्मक हो गया है या फ़िर अपने पीछे जमा धन को या पीछे की सम्पत्तियों को छोड कर चला गया.
  • मेष राशि वालों का सम्बन्ध जब धनु राशि वालों से हुया तो वर या वधू ने सामाजिक रिस्तों पर चलने के लिये जीवन साथी को आगे बढाया। जीवन साथी ने भी पारिवारिक और सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरी तरह से निभाया। जीवन साथी ने अपने धन को अपने द्वारा किये गये कार्यों से प्राप्त किया,कर्म पर अधिक विश्वास किया,उसी स्थान पर वर या वधू ने अपने जीवन साथी के द्वारा किये जाने वाले कार्यों के अन्दर चाहे वह घर के रहे हो या बाहर के सभी मे कर्जा दुश्मनी बीमारी निपटाने का काम किया इस प्रकार से जीवन की गति सामान्य बनकर चलती रही,धर्म भी मिला समाज भी मिला,सन्तान भी मिली और जीवन का इतिहास आगे बढने के लिये साधन भी मिले ।
  • मेष राशि वालों की शादी जब मकर राशि वालों से हुयी तो वर या वधू ने अपने जीवन साथी को काम करने की मशीन ही समझा। यहाँ तक कि घर के कामों में भी और बाहर के कामों में भी हाथ बटाने की क्रिया को जारी रखा,कार्य और मकान जायदाद बनाने के अलावा और कुछ समझ में ही नही आया,कभी फ़ालतू का समय बच गया तो जनता ने भी अपने लिये सहायतायें ली। कभी राजनीति से जुड गये कभी सरकारी कामों के अन्दर अपने बल को प्रयोग करने लगे,कभी पानी की समस्या तो कभी घर के अन्दर के सदस्यों की समस्या,अगर माता अधिक दिन तक जिन्दा रही तो उसकी तीमारदारी का काम भी बडे आराम से किया। अधिक काम करने के कारण और रति सुख से दूर रहने के कारण जीवन साथी के प्रति शंकायें बनने लगी,क्लेश केवल उन्ही आक्षेपों की वजह से हुये जो स्त्री को पुरुष से और पुरुष को स्त्री से जल्दी से लगा दिये जाते है,पिता और पिता जैसे लोगों से शक वाले कारण देखने को मिले,परिणाम में इस प्रकार के रिस्ते अधिकतर नि:संतान बनकर ही रह गये,बडे भाग्य से अगर संतान हुई भी तो वह कन्या संतान सामने आयी और बडी होकर अपने घर चली गयी।
  • मेष राशि वालों की शादी जब कुंभ राशि वाले जीवन साथी से हुयी तो इस राशि वालों ने अपने जीवन साथी को मित्र के रूप में माना,अपने जीवन साथी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना उनके लिये सुखमय हो गया। एक ने अपने को मित्र माना तो दूसरे ने अपने जीवन साथी को समझकर और लोगों के सामने प्रस्तुत करने के बाद जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण पेश किया। अधिकतर रहने वाले स्थान से जीवन साथी की परेशानियां ही रहीं,कोई न कोई तर्क वितर्क घर परिवार में चलता रहा लेकिन दोनो ने अपने अपने दिमाग से एक दूसरे के प्रति समर्पण से अपने जीवन को मजे से जिया,चूंकि जीवन साथी की लगातार की द्रिष्टि संतान पर रही इसलिये संतान ने भी अपने कर्तव्य को पूरी तरह से निभाकर अपना फ़र्ज पूरा किया।
  • मेष राशि वालों की शादी जब मीन राशि वालों से हुयीं तो जीवन साथी ही इस राशि वालों का विनाशक बन गया,उसने सि राशि वाले को केवल सुख और बनाव श्रंगार के साधनों भौतिक कारणों और उनकी प्राप्ति के लिये उससे प्रयास रखे,कहीं न कहीं से धन की कुटुम्ब की चिन्तायें इस राशि वाले को दी जाने लगीं,एक वजन की तरह इस राशि वाले अपने जीवन साथी को लेकर चलने लगे। घूमने में बाहर का भोजन करने में सार्वजनिक संस्थाओं में अपने को जीवन भर लगाये रहे,केवल एक ही बात दिमाग में रही कि अपने अनुसार किस प्रकार से जीवन को आगे बढाया जाये,और अपना नाम किस प्रकार से किया जाये,संतान को पैदा करने में रोग लगने लगे,जिस भी काम से कर्जा हो दुश्मनी हो बीमारी हो उन्ही कामों को पैदा किया जाने लगा। पति ने पत्नी या पत्नी ने पति को कुछ समय की शारीरिक तुष्टि का साधन समझा,जब भी कोई घरेलू या पारिवारिक या सामाजिक बातों का दौर चालू हुआ तो एक कोई अलग सा मुद्दा उठाकर जीवन साथी ने अपमानित किया,कुछ समय बाद या तो बहुत बडा हर्जाना देकर जीवन साथी से दूरियां मिली या जीवन भर के लिये जेल या बेकार होकर जीवन को जिया,अगर संतान हुयी भी तो कन्या संतान की बाहुल्यता हुयी,जीवन के अन्तिम समय में वही सार्वजनिक संस्थायें या घर परिवार के सहायता देने वाले लोग सामने आये।

विवाह मिलान में राशियों की पूरकता

विवाह मिलान में अगर नामकी राशि से विवाह मिलाया जाता है तो जीवन पूर्णता से निकलता है,लेकिन नाम की राशि को राशि की पूर्णता से देखकर ही विवाह को मिलाना चाहिये। प्राचीन काल में स्त्री पुरुष से निर्बल मानी जाती थी,लेकिन वर्तमान में स्त्री भी अपने में पूर्ण है,इसलिये पुरुष जब पूर्णता को नही दे पाता है तो स्त्री स्वयं के प्रयासों से पूर्णता को प्राप्त कर लेती है। वह पूर्णता चाहे धन की हो परिवार की हो या समाज की हो या मर्यादाओं की हो,परिवार की पूर्णता को जानने के लिये आज कितनी ही स्त्रियां अपने अपने परिवार को अकेले चलाने की हिम्मत रखती है,कितनी ही आज उच्च पदासीन है और कितनी ही इस समाज को सुधारने के काम में लगीं है। यहाँ तक कि पुरुष के अन्दर किसी बडे काम को करने का अहम होता है वहीं स्त्री उस काम को दिमाग से कर लेती है और अहम की मात्रा कहीं भी नही मिलती है,पुरुष अगर किसी काम को अहंकार से करना चाहता है तो स्त्री उसी काम को अपनी आदत के अनुसार सेवा से कर लेती है।
पूर्णता और अपूर्णता का भेद
पूर्णता वर और वधू के लिये समझने के लिये राशियों को समझना जरूरी है,पहले मेष राशि को ही लेते है,इस राशि के वर या वधू अपने शरीर से अपने स्वयं के प्रयासों से आगे बढना चाहते है,इन्हे भौतिक साधनों की सामने जरूरत होती है,अपने को संसार में दिखाने के लिये यह दोहरे स्वभाव को अपना लेते है,ठंडे के सामने गर्म और गर्म के सामने ठंडे होकर चलना इनका नियम होता है,मानसिक भावनायें अनन्त होती है माता के प्रति यह जीवन के पच्चिस साल तक समर्पित होते है,इस राशि की सम्पूर्णता उन्ही राशियों से मानी जायेगी जो इसके लिये सम्मुख साधन देने के लिये तैयार होती है,जैसे कन्या राशि सेवा भाव से जुडी राशि है,अगर मेष राशि के वर के लिये कन्या राशि की वधू से सम्बन्ध कर दिया जायेगा तो वधू इस राशि की सेवा के लिये सम्मुख खडी होगी,और कन्या राशि इस राशि की माता की राशि से तीसरी होने के कारण माता भी कन्या राशि की वधू को अपना पराक्रम मानेगी,बिना बहू के आगे नही चल पायेगी,इसके विपरीत अगर मेष राशि के वर से वृश्चिक राशि की वधू से कर दी जायेगी तो मेष राशि तो सकारात्मक राशि और वृश्चिक राशि नकारात्मक राशि है,मेष राशि मेहनत करने के बाद अपने को शो करने की इच्छा रखती है तो वृश्चिक राशि बिना मेहनत के शो करने की आदत रखती है,मेष राशि की आदत खुला रूप है तो वृश्चिक राशि की आदत गुप्त रूप से काम करने की है,मेष राशि जो भी करेगी वह चिल्ला कर करेगी और वृश्चिक राशि चुप रहकर वह काम करेगी। इसी प्रकार से अगर मेष राशि की शादी मीन राशि की वधू से कर दी जाये तो वह अपने प्रभाव से केवल पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष की चाहत को लेकर तथा शरीर को बरबाद करने के कारण पैदा करने के उपाय करने लगेगी। इस प्रकार से राशि का मिलान समझकर ही शादी करने से वर और वधू की सफ़लता प्रकट होने लगती है। इसी प्रकार से वृष राशि के सम्मुख भौतिकता का प्रदर्शन करना होता है वह लोगों के अन्दर अपने भावुकता पूर्ण विचार रखने की कोशिश करती है,उसका मन शेर की प्रकृति का होता है यानी उसे डर नही लगता है,वह चाहे अनचाहे कामो के अन्दर अपने को प्रवेश कर लेती है,वह सामाजिकता के नाते केवल यौन सम्बन्ध धर्म और रीतिरिवाज से ही स्थापित कर सकती है उसे दुनियादारी की छीछा लेदर से बहुत नफ़रत होती है,कर्म में भाग्य दिखाई देता है वह कभी भी एक काम को एक बार में नही करती है वह दो काम एक साथ लेकर चलने वाली राशि है,एक के अन्दर अगर उसे फ़ायदा होता है तो दूसरे काम के अन्दर नुकसान भी हो जाये तो उसे दिक्कत नही होती है,समाज के अन्दर अपने को प्रदर्शित करने का कारण केवल मर्यादा से ही होता है,अगर इस राशि के साथ कर्क राशि का समब्न्ध स्थापित कर दिया जाये तो दोनो राशियां एक दूसरे की पूरक हो जायेंगी और उसी जगह इस राशि वाले का साथ धनु राशि से कर दिया जाये तो एक तो धर्म और भाग्य के लिये अपना जीवन निकालने की कोशिश में होगी तो दूसरे को केवल कर्म पर विश्वास होगा,वह कर्म चाहे किसी प्रकार का क्यों न हो। इस राशि वालों का सम्बन्ध अगर मकर राशि वालों से हो जाता है तो जीवन तबाह हो जायेगा कारण मकर राशि वाला इस राशि के सामने अपने को बहुत बडा प्रदर्शित करने की कोशिश करेगा,अपने अन्दर ईगो को पाल कर चलेगा,और जीवन के अन्दर एक दूसरे की कमियां एक दूसरे को अपने आप सामने आने लगेगीं। हमने कई नाम राशियों वाले पति पत्नियों को आपस में मिलाकर प्रत्यक्ष में देखा,उनके अन्दर जो समानतायें असमानतायें सामने मिली वे इस प्रकार से है:-
  1. मेष राशि की शादी वृष राशि वाले के साथ होने पर मेष राशि ने वृष राशि से धन की और भौतिक साधनों की कल्पना से जीवन को निकालने की कोशिश की,या तो वृष वाला जातक मेष राशि की जरूरतों को पूरा करने के लिये धन और भौतिक साधनों की पूर्ति यहां तक कि खाने पीने का सामान भी अपने मायके या पैत्रिक खानदान से पूरा करता रहा,मेष राशि के द्वारा वृष राशि वाले जातक को लगातार सामने रखने से सन्तान की मात्रा मिस कैरिज और गर्भपात वाली समस्यायें लगातार पैदा होती रही,और एक दिन मेष राशि को वृष वाला वर या वधू कमजोरी और बीमारी के कारण परलोक सिधार गया,और अधिक जीवन को भोगने के लिये रहा भी तो केवल अपने द्वारा नौकरी व्यवसाय करने के बाद मेष राशि वाले के खर्चों को पूरा करने के लिये अधिक जीवन को भोगा.
  2. मेष राशि वाले की शादी अगर मिथुन राशि वाले के साथ कर दी गयी तो मेष राशि वाला अपने परिवार में भले ही छोटा था लेकिन जीवन साथी की उपाधि उसके परिवार में बडी हो गयी,मेष राशि वाला अपने जीवन साथी को अपना बल समझकर साथ लेकर चलता रहा और जीवन के रास्तों में तरक्की को प्राप्त करता गया,लेकिन जहां भी मित्र और लाभ वाली बात आयी वहां पर मेष राशि वाले के जीवन साथी ने उसे पूरा सहयोग दिया तथा उससे अपने हमेशा के फ़ायदे के लिये कोई न कोई सहारा प्राप्त करने के बाद ही उसके साथ जीवन की शुरुआत की। अक्सर आदर्श वैवाहिक जीवन मेष और मितुन राशि वाले का देखने को मिला।
  3. मेष राशि वाले जातक का विवाह अगर कर्क राशि वाले के साथ हुआ तो दोनो ने मिलकर घर मकान जायदाद और जनता के अन्दर अपनी पैठ बनायी,जिस दिन से मेष राशि वाले की शादी हुयी उस दिन से ही चाहे मेष राशि वाला जातक कितना ही कामचोर था लेकिन उसे जीवन के प्रति काम करने की आदत पडने लग गयी और वह तादात से अधिक काम धन्धों को करने लगा। बाहर के काम मेष राशि वाले जातक ने संभाले तो घर के काम और निजी व्यवसाय को जीवन साथी ने संभाला,उम्र की दूसरी श्रेणी में जाकर दोनो संतान के लिये सोच पाये।
  4. मेष राशि वाले जातक का विवाह अगर सिंह राशि वाले के साथ हो गया तो सम्बन्धो में तनाव केवल इसलिये पैदा हुआ क्योंकि आने वाले जीवन साथी ने अपने परिवार की मर्यादायें और रीति रिवाज अपने अनुसार मेष राशि वाले पर जबरदस्ती थोपने की कोशिश की और दोनो के परिवारों और समाज के अन्दर बतकही बनने लगी दोनो के अन्दर आक्षेप विक्षेप बनने लगे,जीवन साथी की राजनीति और काम करने के तरीकों से तंग आकर जीवन की तीसरी श्रेणी तक आपस के सम्बन्ध या तो विलग हो गये,या फ़िर मेष राशि वाले अन्य सम्बन्धों के अन्दर चले गये,या फ़िर उनकी अकाल मृत्यु किन्ही असमान्य कारणों से हो गयी.
  5. मेष राशि वाले जातकों की शादी कन्या राशि के जातकों से होने पर जीवन साथी के द्वारा हर सुख दुख कर्जा दुश्मनी बीमारी और रोजाना के कामो को अपने ऊपर धारण कर लिया गया,परिवार सन्तान और जल्दी से धन कमाने की रीतियों को जीवन साथी के द्वारा परिवार में प्रचलन में लाया गया है सन्तान की शिक्षा और बुद्धि पर उन्होने अनाप सनाप खर्च करने के बाद संतान को समाज में स्थान दिया,लेकिन घर और परिवार की छिपी हुयी राजनीति पर अपनी नजर रखने के कारण वे समाज या परिवार के कुछ लोगों के लिये बुरे भी हो गये,मेष राशि वाले अपनी इस प्रकार के जीवन साथी के व्यवहार से या तो जल्दी बुजुर्ग हो गये या किसी भी जोखिम मे जाने से अपने शरीर या धन से जल्दी बरबाद हो गये,अंत का समय बीमारी या दयनीय स्थिति में गुजारना पडा संतान के अति शिक्षित होने पर वह अपने कर्तव्यों को ही भूल गयी.
  6. मेष राशि वालों की शादी तुला राशि वालों से होने पर जीवन साथी के द्वारा परिवार में आते ही दोहरी नीति को सामने लाया जाने लगा,अथवा शादी के बाद मेष राशि वाले अपने ससुराल खान्दान के लिये दोहरी नीति से काम करने लगे,उनके अन्दर जीवन साथी के द्वारा व्यवसाय के प्रति अधिक झुकाव होने के कारण परिवार की प्रोग्रेस मे अपने जीवन को लगाया जाने लगा।
आगे -2

मेरा भारत एक स्वर्णिम भविष्य की ओर

किसान खेती की बात और उसकी उन्नति और अवनति के बारे में बात करेगा,व्यापारी व्यापार के बारे में घाटे और मुनाफ़े की बात करेगा,इन्जीनियर तकनीक के प्रति उन्नत या रद्दी के बारे में बात करेगा,डाक्टर रोग और उसके निवारण के बारे में बात करेगा,वकील कानून और फ़ैसले के बारे में बात करेगा,कवि कविता और लेखक कहानी और लेख के बारे में सोचने के लिये मजबूर होगा,नौकरी वाला अपने मालिक और नौकरी के मामले में बात करेगा,नेता भाषण और सीट के लिये वोटर अच्छे या बुरे नेता के लिये तथा समाज शास्त्री समाज के निर्माण और सामाजिक बुराइयों भलाइयों के लिये बात करेगा। मतलब जो जिस भाव में चला गया है उसी भाव की बात करेगा। मेरे अनुसार मैने केवल ज्योतिष के बारे में सीखा है तो मै केवल ज्योतिष के बारे में ही योग और कुयोग के बारे में बात करूंगा। पन्द्रह अगस्त और आजादी का चौसठवा पर्व है इसलिये आजाद भारत के बारे में बात करने के लिये आप सभी के सामने हूँ,लेकिन उपरोक्त सभी कारकों के लिये बात को करना और सोचना भी जरूरी है,किसानी की है इसलिये किसानी की बात कर सकता हूँ व्यापार किया है इसलिये व्यापार की बात कर सकता हूँ इन्जीनियरी की है इसलिये इन्जीनियरी की बात कर सकता हूँ डाक्टरी को देखा भी है अंजवाया भी है रोगी भी हुआ हूँ दवा के बारे में पता भी किया है इसलिये डाक्टरी के बारे में भी बात करूंगा,लेखों को लिखा है तो लिखने के बारे में बात करूंगा,कविता के लिये शब्दों को सोचा है इसलिये कविता की भी बात करूंगा,आजादी को समझा है इसलिये आजादी की बात करूंगा।
भारत की स्वतंत्रता
भारत की स्वतंत्रता पन्द्रह अगस्त उन्निस सौ सैंतालीस को रात बारह बजकर एक मिनट पर मिली थी,जिस समय स्वतंत्रता मिली थी उस समय भारतीय ज्योतिष लहली के अनुसार वृष लगन थी,इस लगन का स्वामी शुक्र तीसरे भाव में यानी कर्क राशि में था,धन का मालिक बुध भी कर्क राशि में था,अपने को प्रदर्शन करने वाले भाव तीसरे का मालिक चन्द्रमा भी कर्क राशि में था,जनता के हित और जनता का मालिक सूर्य भी कर्क राशि में था,शिक्षा का मालिक भी सूर्य में है विद्या और बुद्धि का मालिक बुध भी कर्क राशि में है,कर्जा दुश्मनी बीमारी का मालिक शुक्र भी कर्क राशि में है,साझेदारी और देश को आजादी के बाद जिन समस्याओं उसका मालिक मंगल देश के धन भाव में विराजमान है और केतु जूझने के लिये सामने खडा है,देश के लिये अपमान जोखिम और जनता के लिये जो बरबाद होने के कारण है उनका स्वामी गुरु है वह कर्जा दुश्मनी बीमारी में विराजमान है,देश का भाग्य देश का धर्म देश के विदेशी कारणों उच्च शिक्षा कानून और कानूनी राय पर चलने के कारण का मालिक शनि है वह भी कर्क राशि में है,देश में किये जाने वाले कार्य देश के लिये उन्नति अवनति देने के कारण बनाने का मालिक भी शनि है जो कर्क राशि में है,देश के लिये लाभ और देश के लिये मित्रता को देने का कारण वाला ग्रह गुरु है वह भी देश के कर्जा दुश्मनी और बीमारी के भाव में विराजमान है,देश को खर्चा करवाने वाले कारणों देश की उन्नति और अवनति को रास्ता देने वाले तथा देश के लिये उच्च सीमा तक पहुंचाने के लिये जो ग्रह माना जाता है वह भी धन और देश के कुटुम्बीय भाव में है। राहु देश की लगन में है,राहु के द्वारा देश की तरक्की को देने वाले और देश की पहिचान बनाने वाले कारकों पर भाव पर अपनी छाया डाली जा रही है।
देश की जातियां
ग्रहों के अनुसार जातियों के लिये जो ग्रहों का रूप दिया गया है उनके अन्दर राहु को मुस्लिम जैसी जातियों से सम्बन्धित किया गया है,इसके साथ ही वे जातियां भी शामिल की जा सकती है जो अपने शारीरिक सम्बन्धो रिस्तेदारियों को अपने ही समाज के अन्दर करना जानते है और अपने को शक्तिशाली बनाने के लिये इन्सानी ताकत का सहारा लेना जानते है,राहु से बारहवें भाव में इन्सानी राशि मेष होने के कारण तथा राहु का कुटुम्ब की राशि वृष में उपस्थिति होने के कारण राहु का वर्चस्व देश के तीसरे भाव में विराजमान अन्य जातियों से सम्बन्धित ग्रहों पर अपना प्रभाव डाला जा रहा है,चन्द्रमा से खेती करने वाले लोग बनिया वृत्ति को अपनाने वाले लोग,पानी को प्रयोग करने के बाद अपनी जीविका चलाने वाले लोग माने जाते है,बुध से जैन बौद्ध तथा बुद्धि से सम्बन्ध रखने वाले लोग,शुक्र से साज संवार करने वाले लोग नाच कूद मनोरंजन कला शारीरिक हाव भाव आदि से अपने को प्रदर्शित करने वाले लोग गुरु पुरुष जातकों के लिये और शुक्र स्त्री जातकों के लिये मान्यता रखता है,इसलिये इस भाव में जो शुक्र के होने से स्त्री जातकों को भी सूचित करता है,सूर्य क्षत्रिय जाति से सम्बन्ध रखता है चाहे वे किसी भी जाति से सम्बन्धित हों लेकिन उनके अन्दर राजनीति को भी माना जा सकता है,शनि को नौकरी पेशा करने वाले लोगों से तथा पुराने जमाने से चली आ रही एस सी एस टी जातियों के लिये कहा जाता है,जो बुद्धि से मंद होते है या जो कार्य को धीरे करते है या जो काम करते समय चालाकियों को अपने साथ रखते है उनके लिये भी शनि को माना जाता है,मिट्टी खोदने चमडा काटने और नीचा करने वालो को भी शनि की श्रेणी में लाया जाता है। यह जातियां देश की हिम्मत वाले भाव मे है लेकिन सभी पर देश की लगन का राहु विराजमान होने के कारण ग्रहण तो माना जी जा सकता है। अन्य जातियों के मामले में जो जातियां धर्म समाज भाग्य और वैदिक जानकारियों के लिये जानी जाती है वे सभी गुरु के द्वारा मानी जाती है,गुरु का देश के छठे भाव में होना इन जातियों को कर्जा दुश्मनी और बीमारी आदि से ग्रस्त माना जा सकता है। इन जातियों को देश की सेवा भाव वाली और रोजाना के काम करने वाली राशि में होने के कारण वर्चस्व उच्चता से नीचता के लिये भी माना जा सकता है। जैसे कोई ब्राह्मण वेदों का ज्ञाता है लेकिन वह जीविका के लिये नौकरी करता है और लोगों की सेवा करता है,कोई सम्बन्धी के लिये भला काम करता है लेकिन सम्बन्ध का मालिक गुरु होने के कारण उसे बदले में बुराई मिलती है,और बेकार में भलाई करने के बाद दुश्मनी मिलती है। गुरु का न्याय करने के लिये भी माना जाता है,न्याय की प्रक्रिया इतनी जटिल हो जाये कि रोजाना के लिये न्याय वाले काम करने के लिये गुरु के समय तक भागना पडे आदि पहिचान मानी जा सकती है।
देश की सीमाओं के लिये पहिचानी जाने वाली राशियां
सीमाओं के लिये उत्तर में वृष राशि उत्तर पश्चिम में मिथुन राशि पश्चिम में उत्तर से सटी कर्क राशि पश्चिम में सिंह राशि पश्चिम दक्षिण से जुडी कन्या राशि,नैऋत्य में तुला राशि,दक्षिण में वृश्चिक राशि,दक्षिण पूर्व से जुडी धनु राशि अग्नि कोण में मकर राशि पूर्व में कुम्भ राशि,पूर्व उत्तर से जुडी मीन राशि और ईशान में मेष राशि देश की सीमाओं पर विराजमान है। इन राशियों में जो राशियां जिन भावों से पहिचानी जाती है वे इस प्रकार से हैं:-
  • वायव्य राशि उत्तर दिशा से जुडी है और राहु विराजमान है,राहु की स्थिति सूर्य के नक्षत्र कृत्तिका में है,और कृतिका नक्षत्र का तीसरा पाया बुध से सम्बन्धित है,राहु की स्थिति उच्च की मानी जाती है,लेकिन राहु की अवस्था मृत है। इस राहु का मालिक मुख्य रूप से बुध है,बुध को कानून के रूप में माने तो यह दिशा कानून से बंधी मानी जाती है। नक्षत्र का स्वामी सूर्य है,इसलिये यहाँ पर जो भी कानून होगा वह राज्य के प्रति सरकारी कानून होगा वह किसी समुदाय का कानून नही माना जा सकता है। बुध का रूप हरे भरे रूप से और सूर्य का रूप लकडी और उन्नत पहिचान के लिये माना जाता है इसलिये इस दिशा में उन्नत लोगों की पहिचान मानी जा सकती है। कुंडली को सामने से देखने पर दाहिने हाथ की तरफ़ मेष राशि का होना भी बताता है कि देश के ईशान में जन बाहुल्य देश की स्थापना है,यह देश चीन के रूप में माना जा सकता है। साथ ही गुरु की सप्तम नजर इस देश और इस भूभाग पर होने के कारण धर्म से सम्बन्धित देश नेपाल को भी माना जाता है जो अपनी धर्म और मर्यादा को समय समय पर बदलने के लिये तथा राहु के प्रभाव से ग्रस्त होने के कारण जन बाहुल्यता की श्रेणी में गिना जायेगा लेकिन गुरु के इस भाग में प्रवेश करते ही यह देश फ़िर से अपने वास्तविक रूप में आजयेगा। जैसे वर्तमान में यह नेपाल देश कमन्युस्टों यानी जनबाहुल्य के रूप में प्रजातंत्र देश के रूप में है लेकिन गुरु के इस देश की सीमा में मई ग्यारह से प्रवेश करते ही यह अपने पहले वाले वास्तविक रूप में धर्म से आच्छादित हो जायेगा। गुरु मोक्ष का कारक भी है,इसलिये बदलती हुयी राजनीतिक परिस्थियों के कारण और शनि के द्वारा देखे जाने के कारण नवम्बर ग्यारह के बाद या आसपास इस देश का विलय भी माना जा सकता है।
  • वायव्य दिशा में मंगल के स्थापित होने के कारण यह दिशा लडाई झगडे और बलिदानी दिशा के रूप में भी मानी जा सकती है,मिथुन राशि का मंगल होने के कारण यह लडाइयां केवल नाम के लिये ही होती है,रहन सहन के लिये और जलवायु के परिवर्तन या किसी भी आर्थिक परिवेश के प्रति कोई सजगता नही होती है केवल नाम को एक निश्चित भूभाग के प्रति जोडने के लिये ही होती है,इस कारण को पैदा करने वाला मुख्य ग्रह राहु ही माना जाता है,राहु में बल नही होने के कारण और बुध के साथ सूर्य से जुडा होने के कारण वह कर कुछ भी नही पाता है,गुरु जो हिन्दू धर्म से सम्बन्धित है वह भी देश की कुंडली में मृत है,गुरु के ही नक्षत्र विशाखा में होने और विशाखा के दूसरे पाये में स्थापित होने के कारण जो केतु के रूप में जाना जाता है पर निर्भर होता है,यानी कुंडली का केतु जो करेगा वह गुरु को मानना पडेगा,केतु की स्थिति दक्षिण में होने के कारण तथा केतु के द्वारा मंगल को मारक द्रिष्टि से देखने के कारण इन लडाइयों को दक्षिण का केतु ही निपटा सकता है। 
  • उत्तर पश्चिम में ही चन्द्रमा बुध प्लूटो शनि शुक्र सूर्य की उपस्थिति कर्क राशि में है,चन्द्र से पानी बुध से हरी भरी जमीन प्लूटो से मशीनों का प्रयोग किया जाना शनि से पानी वाले कार्यों के लिये की जाने वाली मेहनत शुक्र से खेती वाली जमीन सूर्य से उन्नत खेती और गेंहूँ आदि के लिये गणना मान्य है,पंजाब को इस ग्रह युति का कारक माना जाता है.चन्द्र बुध से मजाकिया,पानी वाली खेती,लोक कलाकार,भाव पूर्ण गीत गाया जाना जिससे शरीर अपने आप धुन के साथ पुलकित होने लगे,यात्रा और कानूनी कार्य करने वाले व्यापार को खेती से सम्बन्धित उपज को प्रयोग में लेने वाले,कर्क राशि का चन्द्रमा समतल स्थान में बहता हुआ पानी,कर्क राशि का बुध पानी वाली हरी फ़सलें,चन्द्र प्लूटो से खेती में प्रयोग आने वाले मशीने,पानी से पैदा की जाने वाली बिजली और बिजली से चलने वाली मशीने,चन्द्र शनि से खेती वाले कामो के लिये किये जाने वाले कार्य,मन के अन्दर जाति पांति से अधिक योग्यता के प्रति विश्वास,चन्द्र शनि से जमा हुआ पानी और चन्द्र शनि से दूध वाली भैंस आदि के लिये भी माना जाता है,चन्द्र शुक्र से लोक कलाकारी और लोक नृत्यों के जानकार सूर्य से राज्य के प्रति जानकार लेकिन सूर्य के बाल होने के कारण बुद्धि का बाल स्वभाव का होना,बुध शुक्र से गाना बजाना और नृत्य करना,बुध शनि से ऐतिहासिक कार्य करना,बुध प्लूटो से ऊन आदि को बुनने के काम मशीनो से करना,बुद्धिमान मशीनो का निर्माण करना,बुध सूर्य से गेंहूं से बने उत्पादनों का व्यापार करना,जनता से सम्बन्धित कानून और कानूनी रूप से सेवा करने वाला आदि बातें भी ग्रहों के अनुसार मानी जाती है। लेकिन इन सभी पर राहु की द्रिष्टि होने के कारण चन्द्र राहु से शराब,राहु बुध से गणना और कम्पयूटर अन्तरिक्ष आदि के क्षेत्र में नाम करना,राहु शुक्र से प्रेम प्यार का नशा रखना,चमक दमक वाले नृत्य और भावनाओं की तरफ़ आकर्षित होना,राहु आकाश के लिये और शुक्र वाहन से माना जाये तो हवाई कम्पनियों के लिये अधिक से अधिक पायलेट पैदा करना,राहु प्लूटो के कारनों को अगर समझा जाये तो वह मशीने जिनसे असीमित काम किया जा सके,आकाशीय कारणों को उत्पन्न करना आदि भी माना जाता है,लेकिन राहु सूर्य के कारणो को अगर समझा जाये तो दाढी रखने वाले पुरुष,जब भी राज्य को राजकीय कारणों को देखा जाये तो इन्ही कारकों के शुरु होते ही राहु यानी मुसलमानी समुदाय का अक्समात जनता पर हावी हो जाना,आदि बातें मानी जाती है।
  • पश्चिम दिशा में सिंह राशि होने के कारण और इस राशि पर धनु और मेष राशि का प्रभाव होने के कारण इस राशि का स्वामी इसी राशि से बारहवें भाव में होने के कारण जो भी प्रसिद्ध लोग इस भूभाग पर है,वे सभी किसी न किसी कारण से उत्तर पश्चिम दिशा के लोगों पर निर्भर है,कला संस्कृति भवन निर्माण सामग्री के लिये और रूखा था जलीय कारणों से दूर भूभाग माना जाता है,इस प्रान्त को राजस्थान कहा जाता है.
  • कन्या राशि के लिये गुजरात को माना जाता है,इस राशि का स्वभाव मीठा बोलना और मीठा खाना,कर्जा दुश्मनी करने और बीमारी पालने के लिये मुख्य माना जाता है,बैंकिंग और फ़ायनेन्स वाले कारणों के लिये भी माना जाता है,दिमागी कामो को करने सेवा के कार्यों से सम्बन्धित कार्यों को संभालने के प्रति भी इस भूभाग को माना जाता है,गुजरात को कन्या राशि के गुणों से पूर्ण माना जाता है।
  • नैऋत्य दिशा में तुला राशि होने से मुंबई आदि क्षेत्र माने जाते है,यह राशि व्यापारिक राशि है और मुंबई को व्यापारिक राशि के लिये माना जाता है,इस राशि से वर्तमान में शनि बारहवां है इसलिये निवास के कारणों और व्यापार की चाल के प्रति जो व्यापार धन आदि से सम्बन्धित है वे फ़्रीज हो रहे है,वहाँ पर रहने वालों के लिये निवास की समस्या को भी देखा जाता है,शनि इस व्यापारिक स्थान पर नवम्बर ग्यारह से बैठ जायेगा,व्यापारिक कारणों के लिये गुरु भी इस राशि से छठा है जो धन आदि के लिये बाहरी सहायताओं और धर्म आदि की लडाइयों के चलने से भी दिक्कत वाला माना जा सकता है.
  • दक्षिण दिशा में केरल कर्नाटक और तमिल आदि प्रदेशों से माना जाता है इस दिशा में लगन का प्रतिद्वंदी केतु विराजमान है केतु ने वायव्य से अपनी युति जोड रखी है,राहु को संभालने के लिये यह केतु गोचर से अपना सही कार्य करता जा रहा है,केतु की सिफ़्त वृश्चिक राशि की होने के कारण शमशान का काला बांस लालकिताब में बताया गया है,अधिकतर जो भी दक्षिण के नेता है वे अपनी औकात को तभी प्रदर्शित करने के लिये सामने आते है जब देश की लगन का राहु अपने भावों को अधिक प्रदर्शित करने के लिये सामने आता है,यह राहु मई ग्यारह के बाद दक्षिण के केतु से मिलने के लिये सामने जा रहा है,और इस कारण से यह धन वाले कारणों से दक्षिण के नेताओं को अपने बस में करने के लिये उकसायेगा,डेढ्साल तक वह इन नेताओं को अपने आगोस में लेगा तो लेकिन उसके बाद वह मुम्बई आदि स्थान पर अपनी निगाह फ़ैलायेगा,इस निगाह फ़ैलाने के कारण दक्षिण के केतु के लिये भय वाली बात पैदा होगी,लेकिन जैसे ही यह कन्या राशि में प्रवेश करेगा,गुजरात आदि प्रान्तों में यह अपनी उच्चता को प्रदर्शित करेगा,और दूसरे भाव के मंगल के द्वारा कंट्रोल में कर लिया जायेगा,इस कारण को अधिक खून खराबा भी माना जा सकता है। जब भी राहु वृश्चिक कन्या मकर वृष पर अपना असर देगा इस देश में खून खराबे के समय के लिये जाना जायेगा.

शिव पार्थिव पूजन

पार्थिव पूजन के लिये स्नान संध्योपासन आदि नित्यकर्म से निवृत्त होकर शुभासन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें। पूजा की सामग्री को सम्भालकर रख दें। अच्छी मिट्टी भी रख लें। भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाकर रुद्राक्ष की माला पहन लें। पवित्री धारण कर आचमन और प्राणायाम करे। इसके बाद विनियोग सहित "ऊँ अपवित्र:...." मंत्र का जाप करे,और अपने को तथा पूजन सामग्री को स्वच्छ करें। रक्षादीपक जला ले । विनियोग सहित "ऊँ पृथिव्य त्वा...."इस मंत्र से आसन को पवित्र करे.हाथ मे अक्षत और पुष्प लेकर स्वस्त्ययन तथा गणपति का स्मरण करें। इसके बाद दाहिने हाथ में अर्घ्य पात्र लेकर उसके अन्दर कुशत्रय पुष्प अक्षत जल और द्रव्य रखकर निम्नलिखित संकल्प करें:-
ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य: (दिन महिना साल का नाम) मम (अपना नाम मय पिता और गोत्र के साथ) सर्वारिष्टनिरसनपूर्वकसर्वपापक्षयार्थं दीर्घायुरारोग्यधनधान्यपुत्रपौत्रादिसमस्तसम्पत्प्रवृद्ध्यर्थं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफ़लप्राप्त्यर्थं श्रीसाम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं पार्थिवलिंगपूजनमहं करिष्ये।

भूमि प्रार्थना
इस प्रकार संकल्प करने के बाद इस मंत्र से भूमि की प्रार्थना करें:-
ऊँ सर्वाधारे देवि त्वद्रूपां म्रुत्तिकामिमाम,ग्रहीष्यामि प्रसन्ना त्वं लिंगार्थं भव सुप्रभे॥
ऊँ ह्राँ पृथिव्यै नम:।
मिट्टी का ग्रहण:-
उद्ध्रतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना,मृत्तिके त्वां च गृहण्यामि प्रजया च धनेन च॥
ऊँ हराय नम: इस मंत्र को पढकर मिट्टी ले,मिट्टी को अच्छी तरह देखकर कर कंकड आदि निकाल दें,कम से कम बारह ग्राम मिट्टी हो,जल मिलाकर मिट्टी को गूंद लें।

लिंग गठन:- ऊँ महेश्वराय नम: कहकर लिंग का गठन करे,यह अंगूठे से न छोटा हो और वित्ते से बडा,मिट्टी की नन्ही सी गोली बनाकर लिंग के ऊपर रखें,यह वज्र कहलाता है,कांसा आदि के पात्र में बिल्वपत्र रखकर उस पर इस मंत्र को पढकर लिंग की स्थापना करें:-
प्रतिष्ठा:- ऊँ शूलपाणये नम:,हे शिव ! इह प्रतिष्ठतो भव। यह कहकर लिंग की प्रतिष्ठा करें। ( यह सामान्य रूप से पार्थिव पूजन में सुगमता की नजर से प्रतिष्ठा की सूक्ष्म विधि है,किंतु पूजन के अवसरों पर या हमेशा के लिये शिवलिंग की स्थापना के लिये जो प्राण प्रतिष्ठा की जाती है वह इस प्रकार से है :- प्राणप्रतिष्ठा का मंत्र विनियोग :- ऊँ अस्य श्री प्रानप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्माविष्णुमहेश्वरा ऋषय: ऋग्यजु:सामानिच्छन्दांसि क्रियामयवपु: प्राणाख्या देवता आँ बीजं ह्रीं शक्ति: क्रौं कीलकं देव (देवी) प्राणप्रतिष्ठापने विनियोग:। (इतना कहकर जल भूमि पर छोड देवें). प्राणप्रतिष्ठा :- हाथ में पुष्प लेकर उसे मूर्ति पर स्पर्श करते हुये इस मंत्र को बोले :- ऊँ ब्रह्माविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नम: शिरसि। ऊँ ऋग्यजु:सामच्छन्दोभ्यो नम:,मुखे। ऊँ प्राणाख्यदेवतायै नम:,ह्रदि। ऊँ आँ बीजाय नम:,गुह्ये। ऊँ ह्रीं शक्तये नम:,पादयो:। ऊँ क्रौं कीलकाय नम:,सर्वांगेषु। इस प्रकार न्यास करने के बाद इन मंत्रों को बोलते हुये पुष्प से ही लिंग को स्पर्श करें:- ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ स: सोऽहं शिवस्य प्राणा इह प्राणा:।  ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ स: सोऽहं शिवस्य जीव इह स्थित:। ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ स: सोऽहं शिवस्य सर्वेन्द्रियाणि वांगमन्स्त्वक्वक्षु:श्रोत्रघ्राणजिव्हापाणिपादयायूपस्थानि इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा। इसके बाद अक्षत (चावल बिना टूटे हुये) से आवाहन करें :- ऊँ भू: पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि। ऊँ भू: पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि । ऊँ भू: पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि । ऊँ स्वामिन सर्वजगन्नाथ यावत्पूजावसानकम,तावत्वम्प्रीतिभावेन लिंगेऽस्मिन संनिधिं कुरु॥ )


प्रतिष्ठा के बाद विनियोग करते हैं :- ऊँ अस्य श्रीशिवपंचाक्षर मंत्रस्य वामदेव ऋषिरनुष्ट्रुपछन्द: श्रीसदाशिवो देवता,ओंकारो बीजम नम: शक्ति:,शिवाय इति कीलकम,मम साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं न्यासे पार्थिवलिंगपूजने जपे च विनियोग:। इस विनियोग से अपने और देवता को दूर्वा अथवा कुश से स्पर्श करते हुये तत्तद अंगो में न्यास करें।
ऋष्यादिन्यास:-
ऊँ वामदेवर्षये नम: सिरसि.
ऊँ अनुष्टुपछन्दसे नम: मुखे.
ऊँ बीजाय नम: गुह्ये.
ऊँ शक्तये नम: पादयो:.
ऊँ शिवाय कीलकाय नम:,सर्वांगे.
ऊँ नं तत्पुरुषाय नम:.ह्रदये.
ऊँ मं अघोराय नम:,पादयो.
ऊँ शिं सद्योजाताय नम: गुह्ये.
ऊँ वां वामदेवाय नम: मूर्घ्नि.
ऊँ यं ईशानाय नम:,मुखे.
करन्यास:-
ऊँ अंगुष्ठाय नम:
ऊँ नं तर्जनीभ्याम नम:.
ऊँ मं मध्यमाभ्याम नम:
ऊँ शिं अनामिकाभ्यां नम:
ऊँ वां कनिष्ठिकाभ्याम नम:
ऊँ यं करतलकरपृष्ठाभ्याम नम:
षडंगन्यास:-
ऊँ ह्रदयाय नम:
ऊँ नं सिरसे स्वाहा.
ऊँ मं शिखायै वषट.
ऊँ शिं कवचाय हुम.
ऊँ वां नेत्रत्राय वौषट
ऊँ यं अस्त्राय फ़ट.

इस प्रकार से न्यास करने के बाद भगवान सदाशिव का ध्यान पूर्वक पूजन करें.

ध्यान
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारूचन्द्रावतंसं,रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम।
पद्मासीनं समन्तात स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानं,विश्ववाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम॥


ध्यान करने के बाद आवाहन
ऊँ पिनाकधृषे नम:,श्रीसाम्बसदाशिव पार्थेश्वर इहागच्छ इह प्रतिष्ठ इह संनिहितो भव। कहकर फ़ूल चढायें।
आसन
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय (साम्बसदाशिवपार्थेवेश्वराय भी बोला जा सकता है) नम: आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि। बिना टूटे चावल चढायें।
पाद्य
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,पादयो: पाद्यं समर्पयामि। जल चढायें।
अर्घ्य
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,हस्तयोरर्घ्य समर्पयामि। जल चढायें।
आचमन
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,आचमनीयं जलं समर्पयामि। जल चढावें।
मधुपर्क
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,मधुपर्क समर्पयामि। मधुपर्क चढावें।
स्नान
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,स्नानीयं जलं समर्पयामि। जल से स्नान करवायें।
पंचामृत स्नान
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,पंचामृत स्नानं समर्पयामि। दूध दही घी शहद गंगाजल मिलाकर स्नान करवायें।
शुद्धोदक स्नान
ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि। शुद्ध जल से स्नान करवायें।
आचमन
 ऊँ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,आचमनीयं जलं समर्पयामि। आचमन के लिये शुद्ध जल चढायें।
महाभिषेक

मकान की सीढी

वास्तु के द्वारा मकान बनाने पर सीढी का उपयोग दूसरी या तीसरी मंजिल पर जाने अथवा छत पर जाने के लिये किया जाता है,अधिकतर मकानों में सीढी लेंटर से ही बना ली जाती है और बाद में उसे ईंटों या चौकोर आयताकार पत्थरों के टुकडों से बना लिया जाता है। अधिकतर मकानों में लकडी की सीढी भी प्रयोग में लायी जाती है,कुछ लोग लोहे की सीढी को घर के अन्दर प्रयोग में लाते है,सीढी से मकान के वास्तु पर क्या असर पडता है आइये हम आपको इसकी जानकारी देते है:-
  • उत्तर दिशा में सीढी बनाने से मकान बनाने वाला हमेशा कर्जाई रहता है और उसकी तीन पीढी तक भी कर्जा समाप्त नही होता है.
  • मकान के पूर्व की तरफ़ सीढी बनाने से घर के सदस्यों का व्यवहार धर्म से धन कमाने के लिये प्रयोग में लाया जाता है,यानी मकान का मालिक धर्म को बेच कर भी अपने लिये धन कमाने से नही चूकेगा.
  • मकान की सीढियां उत्तर से घुमावदार होकर वायव्य की तरफ़ उतरती है तो मकान मालिक का वंश आहत होता है और संतान अनैतिक कामों की तरफ़ भागना शुरु कर देती है.
  • अग्नि कोण की सीढियां घर की महिलाओं में चिक चिक करवाने में अपना पूरा योगदान देती है.
  • सीढियों के नीचे रसोई बनाने के बाद घर के सदस्यों में कोई अन्जानी बीमारी अपना असर हमेशा दिया करती है और घर का धन अस्पताली कारणों में बरबाद होता रहता है.
  • मकान के बीच से दक्षिण की तरफ़ चढती सीढियां मकान मालिक को भोजन और निर्माण वाले कारणों से अलग नही जाने देती है और कोई अलावा प्रोग्रेस नही हो पाती है.
  • मकान के प्रवेश के साथ ही सीढिया अगर उत्तर दिशा की तरफ़ घुमाव में होती है तो घर की बडी संतान अपने कारणों से पूरे परिवार को छिन्न भिन्न कर देती है.
  • सीढियां मुख्य दरवाजे के अनुसार बनायी जाती है,जिस दिशा मे दरवाजा होता है उसके विपरीत दिशा में सीढिया बनायी जाती है,लेकिन आग और पानी के कोण से दूर रखना पडता है.
  • घर के मुखिया को सीढियों के पास अपने सोने और आराम करने का स्थान नही बनाना चाहिये,अन्यथा राते जाग कर काटनी पडती है.
  • डाक्टरों के लिये दवाइयों का काम करने वाले व्यक्तियों के लिये दरवाजे के पास वाली सीढियां फ़ायदा देती है.
  • हवाई कम्पनी और आकाशीय काम करने वालों के मुख्य दरवाजे के पास ही सीढियां होती है,और अक्सर सुबह को जागकर उन्हे सबसे पहले सीढियों के ही दर्शन करने पडते है.
  • सीढियों की संख्या समान होनी चाहिये,असमान सीढियां अक्सर घर की महिलाओं को पीठ सम्बन्धी रोग देने के लिये मुख्य मानी जाती है.
  • सीढी के नीचे पानी का साधन नही बनाना चाहिये,अन्यथा घर के अन्दर एक स्त्री दिमागी रूप से विक्षिप्त अवस्था में होगी.
  • सीढी मकान के निर्माण के समय में ही बनवा लेनी चाहिये,बाद में सीढी बनवाने से बने हुये घरों मे कोई ना कोई बाधा बनी रहती है.
  • अक्सर बिना सीढी वाले घरों के बच्चे शिक्षा में पिछड जाते है,और जो ऊंचाइयां उन्हे मिलनी चाहिये वे नही मिल पाती है.
  • अग्नि दिशा में उतरती सीढियां अक्सर घर में दो भाइयों के परिवार को रखती है लेकिन एक भाई का परिवार अक्सर खत्म हो जाता है,बडे भाई को असहनीय दुख झेलने पडते है और कुछ समय में वह अपने पुत्रों की करतूत से असमय ही मृत्यु को वरण करता है.

श्रीयंत्र का रूप (भाग 5)

समानाधिकरण्यं हि सद्व्द्याहमिदंधियो:।

तथा वैयाधिकरण्य यानी वैषम्य से इदम में ग्राह्य बुद्धि और अहम में ग्राहक बुद्धि का होना ही अशुद्ध विद्या या माया है।

तब उपर्युक्त त्रिविध विलास समानाधिकरण्य अर्थात शुद्ध विद्या से होते है तब सिवतत्व के विधायक शुद्ध विद्या ईश्वर या सदाशिव कहलाते है,और जब वही त्रिविध विलास अशुद्ध विद्या या माया से जनित होते है तो जीव के मैं तू वह रूपी व्यवहार के प्रयोजक हो जाते है। और वह त्रिकोण शक्ति मातृ मेय मान ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान हरि हर हिरण्यगर्भ इच्छा ज्ञान क्रिया मन बुद्धि अहंकार अर्थात अन्त:करणत्रय सत्व रज तम गुणत्रय इत्यादि त्रिपुटी भाव से पूर्ण हो जाती है। इस त्रिपुटी से शून्य अकोणाकार बिन्दु ही पूर्वोक्त त्रिपुटी के उद्भवनार्थ त्रिकोण की आकृति धारण करता है। अर्थात एक ही बिन्दु त्रिकोण में विभक्त हो जाता है। शास्त्र भी कहते है- "सेयं त्रिकोणरूपं माता त्रिगुणरूपिणी माता"। इस महात्रिकोण में श्री कामेश्वर तथा कामेश्वररूप आश्रयाश्रयिभावापन्न तेज इच्छादि शक्ति त्रयरूप से स्थित है। "इच्छादिशक्तिअत्रितयं पशो: सत्वादिसंज्ञकम,महत त्रयस्त्रं चिन्तयामि गुरुवक्त्रादनुत्तरात॥"

अष्टार यानी नवयोन्यात्मक चक्र

हम पहले ही बता कर आये कि श्रीचक्र विश्व यानी ब्रह्माण्ड या पिण्डाण्ड ही है। इसमे बिन्दु शिव है और जीव त्रिकोण,यह भी बतलाया है ये दोनों चक्र जड चेतज और उभयात्कम विश्व के त्रिपुटी रूप जद चेतनरूप शिव शक्ति एवं चित और चैत्य के पारस्परिक संश्लेषको सूचित करते हैं। इनमे बिन्दु अन्तर्मुख विलास करने वाली महाशक्ति अधिष्ठान है,तथा त्रिकोण बहिर्मुखी विलास करने वाली विमर्श शक्ति का अधिष्ठान है,यद्यपि इच्छामात्रं प्रभो: सृष्टि: के अनुसार इनमें किसी क्रम की अपेक्षा नही है,तथापि कल्पित क्रम को लेकर ही अष्टारवासना के सम्बन्ध में अब कुछ विवेचना की जाती है। क्षकार शिवरूप है,यह कूटाक्षर है,अत: शिवतत्व भी कूटतत्व है,इसमें शुद्ध विद्या ईश्वर सदाशिव चतुरस्त्र कहलाता है। जीव के विषय में पहले ही कह चुके है,कि वह शिवरूप ही है। केवल बहिर्मुख उपाधि का प्रयोजक है,माया और अविद्यादि कंचुक ही इसका प्रयोजक है,यह जीव चत्रुस्त्र नामक दूसरा चतुरस्त्र है,इन दोनों के मेल से अष्टकोणात्मक अष्टार बनता है। जो शिव और जीव दोनों भावों को सम्पादन करने वाली सामग्री को उत्पन्न करता है,यह अर्थ के अनुसार तत्व सृष्टि हुयी,शब्द सृष्टि में भी तान्त्रिक रहस्य के अनुसार जीव चतुरस्त्र यवर्ग और शिव चतुरस्त्र शवर्ग को प्रादुर्भूत करने वाला है,यह अष्टार चक्र है,इस प्रकार अष्टार की आठ योनिया और त्रिकोण की एक योनि मिलकर नव योनि चक्र कहलाता है,इसके साथ एक मध्य बिन्दु मिला देने से एक बिन्दु के दस भेद हो जाते है। यह चक्र प्रधान चक्र माना गया है,इसमें शिव और जीव दोनों के चतुरस्त्र मिले है,और इसकी प्रधान देवता महात्रिपुरसुन्दरी है भी शिवजीव दोनों का समिष्टरूप है। अतएव प्रधान देवता का पूजन अष्टार में ही कहा गया है। शास्त्र में लिखा है - "श ष स यवर्गमयं तद्वसुकोणविस्तार:,नवकोणमध्यं चेत्यस्मिंश्चिद्दीपिते दशके॥",यह चक्र त्रियतय प्रमातृपुर स्वप्नवासना तथा अग्नि खंड कहलाता है,योगिनीह्रदयकार के मत से ये तीनों चक्र सृष्टि चक्र हैं। इस्मे बिन्दु चक्र सृष्टि स्थति अर्थात ज्ञान रूप है और अष्टारचक्र सृष्टि संहार अर्थात क्रिया रूप है,बिन्दु को सर्वानन्दमय चक्र त्रिकोण को सर्वसिद्धिप्रदायक चक्र तथा अष्टार को सर्वरक्षाकर चक्र कहते हैं।पाश (इच्छा ही बन्धन है,पाश इच्छा रूप है) अंकुश (ज्ञान बन्धमोचक है,अत: अंकुश ही ज्ञान हुआ) धनुष बाण (वचन से शब्दादि बाणों का मनोरूप धनुष से सन्धान करना ही क्रियाशक्ति का ही व्यापार है) ये चार आयुध है,आश्रय रूप कामेश्वर तथा आश्रयिरूप कामेश्वरी इन दोनों तेजों के पृथक पृथक संयोग से आठ आयुध उत्पन्न हुये,जो अष्टार में स्थति हैं। उपर्युक्त रीति से वामा ज्येष्ठा रौद्री तथा इच्छा ज्ञान क्रिया रूप त्रिकोण ही तीन प्रकार से विभक्त होकर दो शक्ति (वशिनी कामेश्वरी मोदिनी विमला अरुणा जयिनी सर्वेश्वरी कौलिनी ) और एक वह्नि के संयोग से अष्टार चक्र बन जाता है। पुन: वही अष्टारचक्र त्रिधा विभक्त हो वह्नि शक्ति रूप से नवचक्रात्मक बन जाता है। अत: सिद्ध हुआ कि स्वयं अष्टारचक्र ही श्रीचक्र है। "चितिश्चैत्यंच चैतन्यं चेतनाद्वयकर्म च,जीव: कला च देवेशि सूक्ष्मं पुर्यष्टकं मतम॥" इस शास्त्र वचन के अनुसार पूर्वोक्त युगल तेज ही अपने सूक्ष्मरूप प्र्यष्टक में विभक्त होकर वशिन्यादि देवताओं के रूप से अष्टार में अधिष्ठित होता है,अष्टारचक्र का यह संक्षिप्त परिचय हुआ,शास्त्र कहते है - "अष्टारव्यपदेशोऽयं चित्रिर्वाणैषणादिकम,सूक्ष्मं पुर्यष्टकं देव्या मतिरेषा हि गौरवी॥"

अन्तर्द्शार तथा बहिर्दशार चक्र


अबतक शिव जीव तथा शिव तत्व के घटक शुद्द विद्यादि चार तत्व तथा जीव भाव के हेतु भूत माया कला रागादि छ: कंचुक  यों मिलाकर कुल दश तत्वों तथा द्स मूल अक्षर य र ल व श ष स ह क्ष और म के प्रादुर्भाव क्रम के विषय में विवेचना की गयी है। अर्थात कारण लिंग और स्थूल इन त्रिविध शरीरों में से केवल कारण शरीर की ही अबतक आलोचना की गयी है,अब अन्तर्द्शार तथा बहिर्दशार के द्वारा लिंग शरीर के प्रादुर्भाव की बात लिखने जा रहा हूँ,अन्तर्दशार के दस कोण पंच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों से घटित हैं,सुभगोदय में लिखा है - अन्तर्दशार वसुधाज्ञान कर्मेन्द्रियाणि च,महात्रिपुरसुन्दर्या इति संचिन्तयाम्यहम॥".उपर्युक्त अष्टारचक्र में कामेश्वर रूप जो तेजयुग्म वशिन्यादि रूप में अथवा पुर्यष्टक यानी कारण रूप में स्थित था वही युग्म अन्तर्द्शार में इन्द्रिय रूप से दशधा विभक्त हो जाता है और सर्वज्ञादि दस देवताओं के रूप में पूजा जाता है,इसका नाम सर्व रक्षाकर चक्र है। क्योंकि द्विविध इन्द्रियों से ही सबकी रक्षा होती है। इसी प्रकार बहिर्दशा के दश कोण पूर्वोक्त दस इन्द्रियों के विषयों गन्ध रसादि तथा वचानादानादि के आभ्यन्तररूप आकाशादि दस विषयों से बने हैं। "बाह्यो दशारभागोऽयं बुद्धिकर्माक्षर गोचर:॥" इस बहिर्दशार चक्र को सर्वार्थसाधक चक्र के नाम से पुकारते हैं,क्योंकि विषय ही सर्व अर्थों के साधक है,इस चक्र में उपर्युक्त तेजोयुग्म ही दशधा विभक्त होकर सर्वासिद्धिप्रदादि दस देवताओं के रूप में पूजा जाता है,इस बहिर्दशार के चारों विदिक कोणों में चार मर्म स्थान है,इनके अन्तर्भाग में चार त्रिकोणों की भावना की जाती है,इन चार त्रिकोंणों का एक चतुरस्त्र माना जाता है,इसके एक एक कोण में प्रकृति अहंकार बुद्धि और मन ये चार तत्व तथा प फ़ ब भ ये चार मातृका मन्त्र है,मकार जीव रूप त्रिकोण में संलिष्ट है,अन्तर्दशार में टवर्ग तथा तवर्ग और बहिर्दशार में कवर्ग चवर्ग कुल मिलकर बीस मातृका बीज दोनों दशारों के बीस कोणों में होते हैं। इन चौबीस वर्णों में दो दो वर्णों के सयोंग से एक ग्राह्य यानी बाह्य विषय और दूसरा ग्राहक यानी अभ्यन्तररूप तमात्रा और इन्द्रिय ये सूर्य की बारह कलायें बनती हैं। इनमें प और फ़ और ब और भा के सयोंग से प्रकृति और मनरूप दो कलायें बनती है,जो चतुरस्त्र बिम्ब चक्र है,शेष दस कलायें इन्द्रिय तन्मात्रा रूप अवयव कलायें है,यह बिम्ब चक्र की रश्मि के रूप में दशारद्वय में रहती है। इसलिये दशाद्वय और चतुरस्त्र सौरखण्ड प्रमाणपुर एवं जागरात्मक कहलाता है। यहां यह ध्यान रखने की बात है कि जब अन्तर्दशार के तत्व यानी विषय बहिर्दशार यानी इन्द्रियों के तत्वों को अपनी व्याप्ति से आच्छन्न नही करते है  अर्थात जब विषय अपने अपने निकट आभ्यन्तरूप में विलीन रहते है,तब दस इन्द्रिय और शब्द स्पर्शादि पंचतन्मात्रा मन तथा पुरुष इन सत्रह तत्वों का लिंग शरीर बनता है,मूल कारण रूप सूक्ष्म बिन्दु यानी अव्यक्त क्रमश: बाह्यरूप में विकसित होता हुया इन्द्रियादि रूप को प्राप्त होकर लिंगशरीर में परिणत होजाता है। इसी प्रकार वह अन्त्य अवयवीतक विकसित होकर बाह्यरूप में परिणत होता हुआ स्थूल शरीर बन जाता है,इन्ही अवस्थाओं की सूचना चतुरस्त्रगर्भित दशारद्वय से होती है। स्थूल शरीर द्वारा जाग्र व्यवहार का प्रवर्तक सूर्य है,इसमें जड यानी चन्द्रकला और अजद यानी बह्नि कला दोनों का समावेश रहता है। जाग्रपुरु रूप उपर्युक्त त्रिचक्र इन्द्रिय और विषय चेतन और जड दोनो का सम्मिश्रण है। यह दशारद्वय का संक्षिप्त परिचय हुआ।

तत्व का बीज और क्रम

आद्याशक्ति के बहिर्मुख विलास से चित शक्ति चैत्य में लीन हो जाती है,और चैत्य ही बहिर्व्याप्त रहता है। इसी दशा को तन्त्रों में पशु दशा के नाम से पुकारते है,इसमे तत्व और बीज का क्रम इस प्रकार से रहता है -

क से पृथ्वी
ख से जल
ग से तेज
घ से वायु
ड. से आकाश
च से गन्ध
छ से रस
ज से रूप
झ से स्पर्श
यं से शब्द
ट से पायु
ठ से उपस्थ
ड से हाथ
ढ से पैर
ण से वाक
त से नाक
थ से जीभ
द से आंख
न से कान
प से प्रकृति
फ़ से अहंकार
ब से बुद्धि
भ से मन
म से पुरुष


चतुर्दशार चक्र

पुन: उपर्युक्त कामेश्वर- कामेश्वरी रूप तेजोयुग्म चतुर्दशार के चौदह कोणों में विभक्त होकर सर्वसंक्षोभिणी आदि चतुर्दस शक्तियों के रूप में पूजा जाता है। ये चौदह शक्तियां पिण्डाण्ड में दस इन्द्रिय तथा मन बुद्धि चित्त और अहंकार रूप अन्त:करणचतुष्टय के साथ चौदह करणों में रहती है,सुभगोदय में लिखा है - "चतुर्दशारवसुधाकरणानि चतुर्दश।" यह चतुर्दशार चान्द्रखण्ड तथा जड होने से सुषुप्तिपुर कहलाता है,चन्द्र की सोलह कलायें होती है,चौदह कोंणॊं से चौदह कलायें स्वरवर्ग में अकार से लेकर औकार तक ह्रस्व और दीर्घ मिलाकर चौदह वर्ण होते है,तथा अं और अ: अनुस्वार विसर्ग मिलाकर मातृकावर्ण के सोलह स्वर प्रादुर्भूत होते है,बिन्दु से लेकर चतुर्दशार तक प्रधान श्रीचक्र का संक्षिप्त रूप इसी प्रकार है।

अष्टदल षोडशदल तथा भूपुर (चतुरस्त्र)

बिन्दु चक्र वासना में कहा जा चुका है तथा आगे चक्रलेखन प्रकार में भी बताया जायेगा कि सम्पूर्ण श्रीचक्र बिन्दु रूप ही है,शक्ति के द्वारा बिन्दु से चतुर्दशार तक की कल्पना होती है। समस्त विश्व के शिव शक्त्यात्मक होने के कारण त्रिकोण से लेकर चतुर्दशार तक शक्ति चक्र शिव चक्र से गर्भित है,केवल बुद्धिविशदता तथा स्पष्ट ज्ञान के लिये इनका पृथक विवेचन किया जाता है। लेकन प्रकार के अनुसार चतुर्दशार चक्र के बाहर बने हुये अष्टल पद्म चक्र में अनंगकुसुमादि आठ देवियों की पूजा की जाती है,ये देवियां है - अनंगकुसुमा अनन्गमेखला अनन्गमदना मदनातुरा अनन्गरेखा अनन्गवेगिनी अनन्गांकुशा अनन्गमालिनी। उपर्युक्त तेजोमिथुन ही इन देवियों के रूप में पूजित होता है,इस चक्र का नाम सर्वसंक्षोभिण चक्र है। तन्त्र में क्षोभ सृष्टि को कहते है,कारणात्मक होने से ही यह सृष्टिकारक है। ये अष्टदल अष्टार चक्र के अन्तर्भूत है,अत: आग्नेय खण्ड और प्रमातपुर है। इसमें बिन्दुरूप वह्नि की आठ कलायें होती है। यह बिन्दु अभेदप्रमाता है,विसर्गरूप चतुर्दशार के बाह्यभाग में स्थित बिन्दु अष्टदल के अष्टार चक्र के अन्तर्भूत होने के कारण चतुर्दशार के अभ्यन्तरस्थ हो जाता है। तथा विसर्गात्मक षोषशदल के अभ्यन्तर रहता है। लोक प्रसिद्ध वर्णानुक्रम में अ: विसर्ग के पूर्व ही अं अनुस्वार बिन्दु आता है। तथा विलोम पाठ में विसर्ग बाह्य हो जाता है,इस प्रकार बिन्दु विसर्ग परस्पर बाह्यभ्यन्तर होते हुये तान्त्रिक सिद्धान्त के गूढतम रहस्य का द्योतन करते है। सारांश यह है कि विसर्ग का बहिर्भाव पशुभाव के विकास का और बिन्दु का बहिर्भाव शिवभाव की अभिवृद्धि का सूचक है। अष्टदल पद्य अव्यक्तादि आठ कारणों से बना है। इसी प्रकार षोडशदल कमल विसर्गरूप चन्द्र की षोडसकलायुक्त है। यह चक्र विकाररूप अन्त्यावयवी से घटित है,इस चक्र में कार्याकर्षिणी आदि सोलह शक्तियों के रूप में उपर्युक्त तेजोमिथुन की पूजा होती है। कुछ तान्त्रिक इन्हे नित्यातादात्म्य के नाम से पुकारते है,सोलह स्वर ही इसके षोडशदल है,इसका एक सर्वाशापरिपूरक भी है।क्योंकि कार्याकर्षिणी आदि नित्याओं की तृप्ति से ही सारी आशायें पूरी होती है। इस जडात्मक चान्द्र खण्द का सौर खण्डरूप दशारद्वय में अन्तर्भाव है। सूर्य चन्द्र और अग्नि का समिश्रण है। इसके आग्नेय खण्ड में चतुरस्त्र अवस्थित है। भूपुर चक्र में उपर्युक्त तेजोमिथुन की अणिमादि दस सिद्धियों ( अणिमा लघिमा महिमा ईशित्व वशित्व प्राकाम्य भुक्ति इच्छा प्राप्ति और सर्वकाम) ब्राह्मी (ब्राह्मी माहेशी कौमारी वैष्णवी वाराही ऐन्द्री चामुण्डा महालक्ष्मी) आदि अष्ट लोकमातायें तथा मतान्तर से मुद्राओं के रूप में ( मुद्रायें दस है त्रिखण्डा सर्वसंक्षोभिणी द्राविणी सर्वाकर्षिणी सर्ववशंकरी उन्मादिनी महांकशा खेचरी बीज और योनि) पूजा की जाती है,इसको त्रैलोक्य मोहन चक्र कहते हैं। इस चक्र में को तंत्रों में श्रीगंगा यमुना संगम रूप तीर्थराज प्रयाग कहा गया है। इसमें चित चैत्यरूपी दो श्वेत एवं कृष्ण रूपी नदियों का संगम होता है। सारांश यह है कि यह भूपुर अर्थात चतुरस्त्र चक्र जड चेतन तथा शिव जीव दोनो की समाष्टि है। तंत्रों में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गयी है,वह्नि यानी अष्टार चक्र के अन्तर्गत चितस्वरूप बिन्दु चक्र अपनी रश्मि त्रिकोण के द्वारा आक्रान्त है,तथा चिद्रूप चन्द्र चतुर्दशार चक्र के अन्तर्गत अष्टदल के बाहर अपनी किरण षोडसदल से आच्छन्न है। बिम्ब मध्य में रहता है,और किरणें चारों ओर बाहर छिटकी रहती है,इस सामान्य नियम के अनुसार बिन्दु से बाहर त्रिकोण और अष्टदल से बाहर षोडसदल अवस्थित रहता है। इस प्रकार बिन्दु और षोडसदल दोनो बिम्ब अपने अपने प्रभा चक्र त्रिकोण और षोडसदल के साथ दशारचक्र के मध्य में चतुरस्त्र के एक एक कोण के रूप में परिणत होते है। इसी से इस चक्र की तीर्थराज प्रयाग के साथ उपमा सही प्रतीत होती है। इसी कारण यह यन्त्र पूजा पद्धति में सबसे पहले पूजनीय माना जाता है। पूजन दशारचक्र के मध्य में होना चाहिये। केवल व्युत्पत्ति के लिये ही उसका सबसे बाह्यकक्ष में करना बताया गया है।

श्रीयंत्र का स्वरूप (भाग 4)

त्रिकोण चक्र (शक्ति या जीव भाव)

यद्यपि विवर्तवाद या मायावाद के मत से आद्य सिंसृक्षा काल मे ही अक्रम सृष्टि का प्रादुर्भाव सम्भव है,तथा कणादमत के अनुयायी इच्छामात्र  प्रभोसृष्टि: यह कहकर्क्रम सृष्टि का समर्थन करते है,तथापि प्रसिद्ध लोकक्रम से सिद्ध सामान्य विशेष भाव को लेकर स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिये त्रिकोणादि क्रम दिखलाना आचार्यों को अभीष्ट है। बिन्दुचक्र के विवरण में पहले कहा जा चुका है कि विमर्शशक्ति सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से बिन्दु रूप में प्रकट होती है.’विचीकीर्षुर्घनीभूता सा चिदभ्येति बिन्दुताम" इस बिन्दुभाव मे समस्त प्रपंचवासना तथा ज्ञेय ज्ञातृ ज्ञानभाव वट बीज के अन्तर्गत बीज और वृक्ष की भांति सूक्ष्म भाव से लीन रहता है। "यथा न्यग्रोधबीजस्थ: शक्तिरूपो महाद्रुम:,तथा ह्रदयबीजस्थं जगदेतच्चराचरम",पश्चात अन्तर्लीन जगत को व्यक्ति करने की इच्छा से वह बिन्दुअ त्रिकोण रूप में परिणत हो जाता है,या अपने रश्मिस्वरूप त्रिकोण को प्रकट करता है। "कालेन भिद्यमानस्तु स बिन्दुर्भवति त्रिधा" इस त्रिकोण से स्थूल बाह्य सृष्टि का आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जाता है। सृष्टि शब्द अर्थ भेद से दो प्रकार की है। तांत्रिकों का सिद्धान्त है कि अर्थ सृष्टि भी शब्दमूलक ही है,क्योकि संसार का ऐसा कोई भी व्यवहार नही है जो शब्दपूर्वक न हो,सब प्रकार के अर्थ के पूर्व शब्द का ही उदय होता है,तथा शब्द बिना अर्थ के भी अतीत अनागत विषयों एवं सर्वथा असत शशश्रंगादि को भी अपनी वृत्ति से कल्पित कर देता है। अत: शब्द ही अर्थ प्रपंचजाल परावाकरूप शब्द ब्रह्म में लीन हो जाता है,और सृष्टिकाल में पुन: प्रकट हो जाता है। "विश्रान्तमात्मनि पराह्वयवाचि सुप्तौ विश्वं वमत्यथ विबोधपदे विमर्श:।" इस बिन्दु रूप परावाक (मूलकारणभूत बिन्दु) से पश्यन्ती मध्यमा वैखरीरूप त्रिप्टी के द्वारा त्रिकोनात्मक शब्दसृष्टि अभिव्यक्त होती है,बिन्दुरूप परावाक ही कारण बिन्दु है और पश्यन्ती आदि तीनों कार्य बिन्दु कहलाते है,इन चारों को क्रमश: शान्ता वामा ज्येष्ठा और रौद्री तथा अम्बिका इच्छा ज्ञान और क्रिया भी कहा गया है। इनके अधिदैवत अव्यक्त (मूल प्रकृति) ईश्वर हिरण्यगर्भ और विराट है। अधिभूत कामरूप पूर्णगिरि जालन्धर और औड्यान की पूजाओं से परिभाषित चार पीठ है,इनका आध्यात्म मूलाधारस्थ कुण्डलिनी शक्ति है,कुण्डलिनी का परिज्ञान ही तन्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य है,यही परावाक अथवा बिन्दुतत्व का आध्यात्मरूप है। यथा- "या मात्रा त्रपुसीलता तनुलसत्तन्तुस्थितिस्वर्द्धिनी,वाग्बीजे प्रथमे स्थिता तव सदा तां मन्महे ते वयम। शक्ति: कुण्डलिनीति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमा,ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्पृशन्ति जननीगर्भेऽर्भकत्वं नरा:॥" जब यह बिन्दु पूर्वोल्लिखित पश्यन्ती आदि कार्य बिन्दुओं के सृजन में प्रवृत्त होता है,तब यह अव्यक्त कारणबिन्दु ’रव’ नाम से पुकारा जाता है,और यही रव शब्द कहलाता है। "स रव: श्रुतिसम्पन्नै: शब्दब्रह्मेति गीयते।" जब यह निष्पद रवात्मक शब्दब्रह्म वक्ता की इच्छा से उत्पन्न प्रयत्नमात्र से संस्कृत हो शरीर वायु द्वारा नाभि में आता है तव केवल मनोमात्रविमर्श से युक्त अ क च ट त आदि वर्णाविशेषशून्य स्पन्दात्मक प्रकाशमात्र कार्यविन्दु पश्यन्ती वाक कहलाता है,और जब यह रवात्मकब्रह्म पश्यन्तीरूप को प्राप्त होकर शरीर वायु से ह्रदय तक आता है,तब वह निश्चयात्मिका बुद्धि से युक्त होकर अकचटत आदि वर्ण विशेष के सहित स्पन्द से प्रकाशित हो नादरूप मध्यमा वाक होता है,एवं जब वह रवात्मक शब्द मध्यमारूप को प्राप्त होकर ह्रदयस्थ वायु से प्रेरित हो मुख पर्यन्त आता है,तब कण्ठ ताल्वादि स्थानों से स्पृष्ट होकर दूसरे मनुष्यों के श्रोत्रेन्द्रिय से सुनने योग्य अकचटत आदि वर्णों के स्पष्ट प्रकाशरूप में बीजात्मक वैखरी वाक कहलाता है,आचार्यों ने कहा भी है - "मूलाधारात प्रथममुदितो यश्च भाव: पराख्य: पश्चात पश्यन्त्यथ ह्रदयगो बुद्धियुंग मध्यमाख्य:,व्यक्ते वैखर्यथ रुरुदिषोरस्य जन्तो: सुषुम्णा बद्धस्थस्माद्धवति पवनप्रेरिता वर्णसंज्ञा"। वर्णों की अभिव्यक्ति तत्तत्स्थानों से हुये बिना वह दूसरों के द्वारा ग्रहण योग्य नही हो सकती है। इसलिये मुख से नीचे नाभि पर्यन्त स्त्रोतोमार्ग से अवरुद्ध होने से वर्णाभिव्यक्ति नही होती । पान्तु मध्यमा में वह मूल अव्यक्त रव बुद्धि युक्त होता है,अत: बुद्धि रखने वाले सभी जीव अपने अपने भीतर मध्यमा वाक का अनुभव कर सकते है। एवं पश्यन्ती रव में तो केवल मन का ही सम्बन्ध होता है,इसलिये मन प्राणिधान में समर्थ योगी ही पश्यन्ती रव का प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। साधारण जन नही। परावाक तो मन और बुद्धि से भी अतीत है,अत: मन बुद्धि को भी भेदन करके देखने वाले अनुभव करते है । वस्तुत: यही परावाक पूर्णतारूप अहंभाव और प्रकाशरूप है,परन्तु साधारण लोगों को अयं घट:,अयं पट: यानी यह घट है यह पट है,इत्यादि अन्यापेक्ष होने से अपूर्णरूप नाना भाव के द्वारा ही सत्ता का प्रकश मिलता है,इसीलिये वे विकल्प व्याधि ग्रस्त रहते है। ज्ञानी इस नानाभाव यानी अपूर्णता का त्याग कर शुद्ध परावाकरूप पूर्णाहंभाव को ही ग्रहण करते हैं। इसी कारण अज्ञानी बद्ध कहलाते हैं। और ज्ञानी मुक्त कहलाते है। यही परावाक शब्द अर्थ मन्त्र चक्र देह आदि सकलरूप तथा सबका मूल कारण है - "सावश्यं विज्ञेया यत्परिणामाद्भूदेषा,अर्थमयी शब्दमयी चक्रमयी देहमय्यापि च॥" इस महाशक्ति का गुणगान आचार्यों ने इस प्रकार किया है - " शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वाधिनीत्युच्यसे,त्वत्त: केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति स्फ़ुटम,लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरमे ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी,सा त्वं काचिदनिन्त्यरूप महिमा शक्ति: परागीयसे"। इस प्रकार सब मन्त्रों तथा कादिविद्या हादि विद्या षोडसी पंचदशी बाला महात्रिपुरसुन्दरी भुवनेशवरी आदि विद्याओं की जननी परावाक है। जिस प्रकार बिन्दुरूप परावाक सकल शब्दों की जननी है उसी प्रकार वह छत्तिस तत्वों की भी माता है,तन्त्रिकामतानुसार वे छत्तिस तत्य है ये हैं - पांच इन्द्रियों के  विषय,पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा पांच कर्मेन्द्रिय पांच इन्द्रियों के विषय मन बुद्धि अहंकार प्रकृति पुरुष कला अविद्या राग काल नियति माया शुद्धविद्या ईश्वर सदाशिव शक्ति और शिव । यह हुयी अर्थ सृष्टि एवं बिन्दु ही सम्पूर्ण चक्र का मूल है,इसलिये चक्र सृष्टि भी इसी से हुयी है। देह नवचक्रमय है,अत: देह सृष्टि का कारण भी यह बिन्दु ही है। अब हम अपने प्रकृत विषय त्रिकोण पर आते हैं। इस त्रिकोण को उपर्युक्त विवरण के अनुसार योनि चक्र या शक्तिचक्र एवं जीव त्रिकोण या विसर्ग कहते है। पहले कहा जा चुका है,कि बिन्दु शिवरूप है,यही तुरीया अवस्था है। जीव त्रिकोण है,जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति तीन अवस्थायें ही तीन त्रिकोण है,वह शक्ति जो अन्तर्मुख्य होकर शुद्ध अहं भाव को प्राप्त हुयी शिवस्वरूप से विश्राम लेती है,तथा बहिर्मुख होकर जीव भाव से संसरण करती है,शिव जीव की समिष्टभूत क्षमात्मशक्ति त्रिपुर सुन्दरी त्रिपुरा श्री आदि शब्दों से तन्त्रों में वर्णित हुई है। इससे सिद्ध हुआ कि वस्तुत: शिव और शक्ति भिन्न भिन्न नही है,बल्कि अन्तर्मुख और बहिर्मुख द्रष्टि से एक ही महाशक्ति के दो नाम है। तथा इसके साथ ही यह भी ज्ञात हो गया कि तत्वत: बिन्दु और त्रिकोण में भी कोई अन्तर नही है,क्योंकि बिन्दु कारण है और त्रिकोण कार्य है,और कार्य-कारण तादाम्य माना जाता है - "आद्या कारणमन्या कार्यं त्वन्योर्यतस्ततो हेतो:,सैवेयं नहि भेदस्तादात्म्यं हेतुहेतुमतो:॥" इस महाशक्ति के पर अपर एव परापर विलास से ही अहम यानी उत्तम पुरुष इदम यानी प्रथम पुरुष और त्वम यानी मध्यम पुरुष का व्यवहार होता है। जब यह शक्ति दूसरे की अपेक्षा न रखकर पूर्णाहंभाव से "सोऽहम" रूप विमर्श या स्पन्द का प्रकाश करती है,तब शिवतत्व के नाम से अभिहित होती है। और जब अन्यापेक्ष होकर "स इदम" रूप अपूर्ण विमर्श से विलास करती है,तब शुद्ध विद्या कहलाती है। तथा "स इदम-अहमिदम" इन दोनो भावों में समान गुणप्रधानरूप से उदासीन होकर विलास करती है तब सदाशिव या महेश्वर संज्ञा को प्राप्त होती है। सदाशिव और ईश्वर अवस्था में इतना ही अन्तर होता है। कि सदाशिव दशा में अहम के अधिकारभूत चिन्मात्रा में अहमिदम इत्याकारक इदम अंश का उल्लास होता है,और ईश्वर दशा में इदमहम इत्याकारक विमर्श के अन्तर्गत इदम अधिकरण में अहम अंश का स्पष्ट उल्लास होता है,परन्तु शुद्ध विद्या दशा में ग्राह्य ग्राहक भाव का समानाधिकरण्य हो जाता है।
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