आगरा से कानपुर तक ग्वालियर से मैनपुरी तक का क्षेत्र किसी जमाने में भदावर के नाम से जाना जाता था। आबू पर्वत से लेकर भदावर तक का सफ़र बहुत ही कठोर रहा है,कितने ही आये और कितने ही चले गये,कितनों ने कुर्बानियां दी,कितनों ने अपनी आन बान और शान को रखा यह सब ऐतिहासिक बातें है,लेकिन भदावरी कहावतें अपने में बहुत ही मजेदार और लच्छेदार मानी जाती है,कुछ हम भी पुराने जमाने से यानी सन चौसठ से जब से बुद्धि का विकास हुआ था,सुनते आये और वे अपने आप ही याद हो गयीं,किसी दूसरी भाषा की डिक्सनरी में उनकी खोज भी नही की,यह कहावतें ठेठ भदावरी भाषा में कही जाती है।
पुराने जमाने में घर गांवों में कच्चे ही बनाये जाते थे,मिट्टी को पानी से भिगोकर उससे अच्छी तरह से मिलाया जाता था,जिसे भदावरी भाषा में गारा कहा जाता था,इस गारे को फ़ावडे से काट काट कर जो मिट्टी का कच्चा हिस्सा बनाया जाता था उसे मिट्टी का लोंदा कहा जाता था,उस लोंदे को दिवाल में लगाने के बाद जो भाग बना दिया जाता था उसे रद्दा कहा जाता था,एक बार का बनाया गया रद्दा कुछ दिनो के लिये सूखने के लिये छोड दिया जाता था,जिससे दुबारा रद्दा लगाने के बाद गीला रहने के कारण वह गिरे नही यह काम जल्दबाजी में नही किया जा सकता था,बडे ही सोच विचार कर दोनो तरफ़ नाप जोख कर रद्दे को रखा जाता था,कहीं से टेढा होने पर उसे खुरपी या फ़ावडे से छीला जाता था,उस बची हुयी मिट्टी की छीलन को भीगी होने के कारण चपेटा कहा जाता था,उस चपेटा को दुबारा मिट्टी में डालकर अगर रद्दा चला दिया जाता था तो वह अधिक दिन टिकता नही था,और जरा सी बारिस या गर्मी से वह चटक कर गिर जाता था। इस चपेटा की कहावत को गांवों में कहा जाने लगा,जब कोई व्यक्ति अधिक कंजूसी करता था,और जो पास में होता था उसे खर्च नही करके अगर दूसरों से फ़िर भी मांगा जाता था,तो उससे कहा जाता था,-"चपेटो सो समेटो,लपेटो सो बैठो",अर्थात जिसने चपेटा को दिवाल में प्रयोग किया उसने अपने घर द्वार को समेट कर दूसरे स्थान पर जाना पडा और जिसने नई मिट्टी को प्रयोग में लिया वह अपने घर में बैठा है।
अक्सर घरों निकले पानी की नालियां गलियों और दरवाजों से निकलती थी,चिकनी मिट्टी होने के कारण और कचडे के मिल जाने से बदबू भी मारती थी,उन नालियों वाले स्थान को "पुरखनि परिपाटी,नरकाघाटी" अर्थात पूर्वजों से चली आ रही नालियों की दशा नरक जैसी है।
जिन घरों में नही होने के बाद भी अपने को समृद्ध बताने की कोशिश की जाती थी,उनके लिये कहा जाता था-"न नुन्हाडा में नौन,न तिल्हाडा में तेल",अर्थात नमक के घडे में नमक नही है और तेल के घडे में तेल नही है।
जो लोग अपने को बन ठन कर ताव दिखाती मुच्छों को उमेठ कर चलने की आदत थी,और धोती जो पहिनी जाती थी,उसे पहिनने की कला नही आती थी,केवल दिखावा करने के कारण उससे कहा जाता था,-"ऊंचे नीची धोती पहिने,हम जानी कोई क्षत्री,जाति को धनुआ",।
जिन घरों में सास की कदर नही की जाती थी और उसे अपने घर के कामों में ही लगाकर रखा जाता था,दूसरों के घरों में सास जो चलते पुर्जा हुआ करती थी,अपनी बहू को सुना सुना कर कहा करती थी,-"जमाना गया जब बहुये ब्यालू किया करती थीं", अर्थात शाम का भोजन इस घर में बहू को नही मिलने वाला है।
जिन लोगों के लडकों की शादियां बिना दहेज की होती थी,उनकी बहुओं को ताना मारने के लिये कहावत कही जाती थी,-"करनी ना करतूत,आन गली की छूत",अर्थात कुछ न दिया न लिया,केवल दूसरी गली की छूत घर में आगयी।
किसी के घर पर कोई फ़सल अच्छी हो जाती थी,और दूसरों के घर पर वह फ़सल नही होती थी,तो अक्सर गांव में एक दूसरे से मांग कर अपना काम चलाया जाता है,लेकिन किसी किसी के घर पर एक दाना भी बाहर नही जा सकता था,उस घर की मुखिया औरत हमेशा पहरेदारी में हुआ करती थी,उसके लिये कहावत कही जाती थी,-"कमला के बाग में कमल गटा,कमला ठाडी लहें लठा",यानी कमला के बाग में कमलगट्टे पैदा हो गये है,लेकिन उन कमल गट्टों को लेकर कैसे आयें वहां तो कमला लट्ठ लेकर खडी है।
शादी विवाह में पूडियां बनाई जाती थी और साथ में मीठी वस्तु के लिये गोल चूडी के आकार का गुना बनाया जाता था,जो औरत बिना बुलाये शादी के घर में जाती थी,और जो भी महिला संगीत आदि हुआ करता था,उसमें शामिल होकर नाच गाना किया करने के बाद जाती थी,तो उसे मनुहार के रूप में केवल गुना ही दिया जाता था,पूडी केवल अपने जान पहिचान या बुलाये गये मेहमान को ही दी जाती थी,उसके लिये कहावत कही जाती थी,-"कल्लो आयीं कल्लो आयीं तेल के दिना,नाचि गयीं कूदि गयीं ले गयीं गुना".