श्रीयंत्र का रूप (भाग 5)

समानाधिकरण्यं हि सद्व्द्याहमिदंधियो:।

तथा वैयाधिकरण्य यानी वैषम्य से इदम में ग्राह्य बुद्धि और अहम में ग्राहक बुद्धि का होना ही अशुद्ध विद्या या माया है।

तब उपर्युक्त त्रिविध विलास समानाधिकरण्य अर्थात शुद्ध विद्या से होते है तब सिवतत्व के विधायक शुद्ध विद्या ईश्वर या सदाशिव कहलाते है,और जब वही त्रिविध विलास अशुद्ध विद्या या माया से जनित होते है तो जीव के मैं तू वह रूपी व्यवहार के प्रयोजक हो जाते है। और वह त्रिकोण शक्ति मातृ मेय मान ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान हरि हर हिरण्यगर्भ इच्छा ज्ञान क्रिया मन बुद्धि अहंकार अर्थात अन्त:करणत्रय सत्व रज तम गुणत्रय इत्यादि त्रिपुटी भाव से पूर्ण हो जाती है। इस त्रिपुटी से शून्य अकोणाकार बिन्दु ही पूर्वोक्त त्रिपुटी के उद्भवनार्थ त्रिकोण की आकृति धारण करता है। अर्थात एक ही बिन्दु त्रिकोण में विभक्त हो जाता है। शास्त्र भी कहते है- "सेयं त्रिकोणरूपं माता त्रिगुणरूपिणी माता"। इस महात्रिकोण में श्री कामेश्वर तथा कामेश्वररूप आश्रयाश्रयिभावापन्न तेज इच्छादि शक्ति त्रयरूप से स्थित है। "इच्छादिशक्तिअत्रितयं पशो: सत्वादिसंज्ञकम,महत त्रयस्त्रं चिन्तयामि गुरुवक्त्रादनुत्तरात॥"

अष्टार यानी नवयोन्यात्मक चक्र

हम पहले ही बता कर आये कि श्रीचक्र विश्व यानी ब्रह्माण्ड या पिण्डाण्ड ही है। इसमे बिन्दु शिव है और जीव त्रिकोण,यह भी बतलाया है ये दोनों चक्र जड चेतज और उभयात्कम विश्व के त्रिपुटी रूप जद चेतनरूप शिव शक्ति एवं चित और चैत्य के पारस्परिक संश्लेषको सूचित करते हैं। इनमे बिन्दु अन्तर्मुख विलास करने वाली महाशक्ति अधिष्ठान है,तथा त्रिकोण बहिर्मुखी विलास करने वाली विमर्श शक्ति का अधिष्ठान है,यद्यपि इच्छामात्रं प्रभो: सृष्टि: के अनुसार इनमें किसी क्रम की अपेक्षा नही है,तथापि कल्पित क्रम को लेकर ही अष्टारवासना के सम्बन्ध में अब कुछ विवेचना की जाती है। क्षकार शिवरूप है,यह कूटाक्षर है,अत: शिवतत्व भी कूटतत्व है,इसमें शुद्ध विद्या ईश्वर सदाशिव चतुरस्त्र कहलाता है। जीव के विषय में पहले ही कह चुके है,कि वह शिवरूप ही है। केवल बहिर्मुख उपाधि का प्रयोजक है,माया और अविद्यादि कंचुक ही इसका प्रयोजक है,यह जीव चत्रुस्त्र नामक दूसरा चतुरस्त्र है,इन दोनों के मेल से अष्टकोणात्मक अष्टार बनता है। जो शिव और जीव दोनों भावों को सम्पादन करने वाली सामग्री को उत्पन्न करता है,यह अर्थ के अनुसार तत्व सृष्टि हुयी,शब्द सृष्टि में भी तान्त्रिक रहस्य के अनुसार जीव चतुरस्त्र यवर्ग और शिव चतुरस्त्र शवर्ग को प्रादुर्भूत करने वाला है,यह अष्टार चक्र है,इस प्रकार अष्टार की आठ योनिया और त्रिकोण की एक योनि मिलकर नव योनि चक्र कहलाता है,इसके साथ एक मध्य बिन्दु मिला देने से एक बिन्दु के दस भेद हो जाते है। यह चक्र प्रधान चक्र माना गया है,इसमें शिव और जीव दोनों के चतुरस्त्र मिले है,और इसकी प्रधान देवता महात्रिपुरसुन्दरी है भी शिवजीव दोनों का समिष्टरूप है। अतएव प्रधान देवता का पूजन अष्टार में ही कहा गया है। शास्त्र में लिखा है - "श ष स यवर्गमयं तद्वसुकोणविस्तार:,नवकोणमध्यं चेत्यस्मिंश्चिद्दीपिते दशके॥",यह चक्र त्रियतय प्रमातृपुर स्वप्नवासना तथा अग्नि खंड कहलाता है,योगिनीह्रदयकार के मत से ये तीनों चक्र सृष्टि चक्र हैं। इस्मे बिन्दु चक्र सृष्टि स्थति अर्थात ज्ञान रूप है और अष्टारचक्र सृष्टि संहार अर्थात क्रिया रूप है,बिन्दु को सर्वानन्दमय चक्र त्रिकोण को सर्वसिद्धिप्रदायक चक्र तथा अष्टार को सर्वरक्षाकर चक्र कहते हैं।पाश (इच्छा ही बन्धन है,पाश इच्छा रूप है) अंकुश (ज्ञान बन्धमोचक है,अत: अंकुश ही ज्ञान हुआ) धनुष बाण (वचन से शब्दादि बाणों का मनोरूप धनुष से सन्धान करना ही क्रियाशक्ति का ही व्यापार है) ये चार आयुध है,आश्रय रूप कामेश्वर तथा आश्रयिरूप कामेश्वरी इन दोनों तेजों के पृथक पृथक संयोग से आठ आयुध उत्पन्न हुये,जो अष्टार में स्थति हैं। उपर्युक्त रीति से वामा ज्येष्ठा रौद्री तथा इच्छा ज्ञान क्रिया रूप त्रिकोण ही तीन प्रकार से विभक्त होकर दो शक्ति (वशिनी कामेश्वरी मोदिनी विमला अरुणा जयिनी सर्वेश्वरी कौलिनी ) और एक वह्नि के संयोग से अष्टार चक्र बन जाता है। पुन: वही अष्टारचक्र त्रिधा विभक्त हो वह्नि शक्ति रूप से नवचक्रात्मक बन जाता है। अत: सिद्ध हुआ कि स्वयं अष्टारचक्र ही श्रीचक्र है। "चितिश्चैत्यंच चैतन्यं चेतनाद्वयकर्म च,जीव: कला च देवेशि सूक्ष्मं पुर्यष्टकं मतम॥" इस शास्त्र वचन के अनुसार पूर्वोक्त युगल तेज ही अपने सूक्ष्मरूप प्र्यष्टक में विभक्त होकर वशिन्यादि देवताओं के रूप से अष्टार में अधिष्ठित होता है,अष्टारचक्र का यह संक्षिप्त परिचय हुआ,शास्त्र कहते है - "अष्टारव्यपदेशोऽयं चित्रिर्वाणैषणादिकम,सूक्ष्मं पुर्यष्टकं देव्या मतिरेषा हि गौरवी॥"

अन्तर्द्शार तथा बहिर्दशार चक्र


अबतक शिव जीव तथा शिव तत्व के घटक शुद्द विद्यादि चार तत्व तथा जीव भाव के हेतु भूत माया कला रागादि छ: कंचुक  यों मिलाकर कुल दश तत्वों तथा द्स मूल अक्षर य र ल व श ष स ह क्ष और म के प्रादुर्भाव क्रम के विषय में विवेचना की गयी है। अर्थात कारण लिंग और स्थूल इन त्रिविध शरीरों में से केवल कारण शरीर की ही अबतक आलोचना की गयी है,अब अन्तर्द्शार तथा बहिर्दशार के द्वारा लिंग शरीर के प्रादुर्भाव की बात लिखने जा रहा हूँ,अन्तर्दशार के दस कोण पंच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों से घटित हैं,सुभगोदय में लिखा है - अन्तर्दशार वसुधाज्ञान कर्मेन्द्रियाणि च,महात्रिपुरसुन्दर्या इति संचिन्तयाम्यहम॥".उपर्युक्त अष्टारचक्र में कामेश्वर रूप जो तेजयुग्म वशिन्यादि रूप में अथवा पुर्यष्टक यानी कारण रूप में स्थित था वही युग्म अन्तर्द्शार में इन्द्रिय रूप से दशधा विभक्त हो जाता है और सर्वज्ञादि दस देवताओं के रूप में पूजा जाता है,इसका नाम सर्व रक्षाकर चक्र है। क्योंकि द्विविध इन्द्रियों से ही सबकी रक्षा होती है। इसी प्रकार बहिर्दशा के दश कोण पूर्वोक्त दस इन्द्रियों के विषयों गन्ध रसादि तथा वचानादानादि के आभ्यन्तररूप आकाशादि दस विषयों से बने हैं। "बाह्यो दशारभागोऽयं बुद्धिकर्माक्षर गोचर:॥" इस बहिर्दशार चक्र को सर्वार्थसाधक चक्र के नाम से पुकारते हैं,क्योंकि विषय ही सर्व अर्थों के साधक है,इस चक्र में उपर्युक्त तेजोयुग्म ही दशधा विभक्त होकर सर्वासिद्धिप्रदादि दस देवताओं के रूप में पूजा जाता है,इस बहिर्दशार के चारों विदिक कोणों में चार मर्म स्थान है,इनके अन्तर्भाग में चार त्रिकोणों की भावना की जाती है,इन चार त्रिकोंणों का एक चतुरस्त्र माना जाता है,इसके एक एक कोण में प्रकृति अहंकार बुद्धि और मन ये चार तत्व तथा प फ़ ब भ ये चार मातृका मन्त्र है,मकार जीव रूप त्रिकोण में संलिष्ट है,अन्तर्दशार में टवर्ग तथा तवर्ग और बहिर्दशार में कवर्ग चवर्ग कुल मिलकर बीस मातृका बीज दोनों दशारों के बीस कोणों में होते हैं। इन चौबीस वर्णों में दो दो वर्णों के सयोंग से एक ग्राह्य यानी बाह्य विषय और दूसरा ग्राहक यानी अभ्यन्तररूप तमात्रा और इन्द्रिय ये सूर्य की बारह कलायें बनती हैं। इनमें प और फ़ और ब और भा के सयोंग से प्रकृति और मनरूप दो कलायें बनती है,जो चतुरस्त्र बिम्ब चक्र है,शेष दस कलायें इन्द्रिय तन्मात्रा रूप अवयव कलायें है,यह बिम्ब चक्र की रश्मि के रूप में दशारद्वय में रहती है। इसलिये दशाद्वय और चतुरस्त्र सौरखण्ड प्रमाणपुर एवं जागरात्मक कहलाता है। यहां यह ध्यान रखने की बात है कि जब अन्तर्दशार के तत्व यानी विषय बहिर्दशार यानी इन्द्रियों के तत्वों को अपनी व्याप्ति से आच्छन्न नही करते है  अर्थात जब विषय अपने अपने निकट आभ्यन्तरूप में विलीन रहते है,तब दस इन्द्रिय और शब्द स्पर्शादि पंचतन्मात्रा मन तथा पुरुष इन सत्रह तत्वों का लिंग शरीर बनता है,मूल कारण रूप सूक्ष्म बिन्दु यानी अव्यक्त क्रमश: बाह्यरूप में विकसित होता हुया इन्द्रियादि रूप को प्राप्त होकर लिंगशरीर में परिणत होजाता है। इसी प्रकार वह अन्त्य अवयवीतक विकसित होकर बाह्यरूप में परिणत होता हुआ स्थूल शरीर बन जाता है,इन्ही अवस्थाओं की सूचना चतुरस्त्रगर्भित दशारद्वय से होती है। स्थूल शरीर द्वारा जाग्र व्यवहार का प्रवर्तक सूर्य है,इसमें जड यानी चन्द्रकला और अजद यानी बह्नि कला दोनों का समावेश रहता है। जाग्रपुरु रूप उपर्युक्त त्रिचक्र इन्द्रिय और विषय चेतन और जड दोनो का सम्मिश्रण है। यह दशारद्वय का संक्षिप्त परिचय हुआ।

तत्व का बीज और क्रम

आद्याशक्ति के बहिर्मुख विलास से चित शक्ति चैत्य में लीन हो जाती है,और चैत्य ही बहिर्व्याप्त रहता है। इसी दशा को तन्त्रों में पशु दशा के नाम से पुकारते है,इसमे तत्व और बीज का क्रम इस प्रकार से रहता है -

क से पृथ्वी
ख से जल
ग से तेज
घ से वायु
ड. से आकाश
च से गन्ध
छ से रस
ज से रूप
झ से स्पर्श
यं से शब्द
ट से पायु
ठ से उपस्थ
ड से हाथ
ढ से पैर
ण से वाक
त से नाक
थ से जीभ
द से आंख
न से कान
प से प्रकृति
फ़ से अहंकार
ब से बुद्धि
भ से मन
म से पुरुष


चतुर्दशार चक्र

पुन: उपर्युक्त कामेश्वर- कामेश्वरी रूप तेजोयुग्म चतुर्दशार के चौदह कोणों में विभक्त होकर सर्वसंक्षोभिणी आदि चतुर्दस शक्तियों के रूप में पूजा जाता है। ये चौदह शक्तियां पिण्डाण्ड में दस इन्द्रिय तथा मन बुद्धि चित्त और अहंकार रूप अन्त:करणचतुष्टय के साथ चौदह करणों में रहती है,सुभगोदय में लिखा है - "चतुर्दशारवसुधाकरणानि चतुर्दश।" यह चतुर्दशार चान्द्रखण्ड तथा जड होने से सुषुप्तिपुर कहलाता है,चन्द्र की सोलह कलायें होती है,चौदह कोंणॊं से चौदह कलायें स्वरवर्ग में अकार से लेकर औकार तक ह्रस्व और दीर्घ मिलाकर चौदह वर्ण होते है,तथा अं और अ: अनुस्वार विसर्ग मिलाकर मातृकावर्ण के सोलह स्वर प्रादुर्भूत होते है,बिन्दु से लेकर चतुर्दशार तक प्रधान श्रीचक्र का संक्षिप्त रूप इसी प्रकार है।

अष्टदल षोडशदल तथा भूपुर (चतुरस्त्र)

बिन्दु चक्र वासना में कहा जा चुका है तथा आगे चक्रलेखन प्रकार में भी बताया जायेगा कि सम्पूर्ण श्रीचक्र बिन्दु रूप ही है,शक्ति के द्वारा बिन्दु से चतुर्दशार तक की कल्पना होती है। समस्त विश्व के शिव शक्त्यात्मक होने के कारण त्रिकोण से लेकर चतुर्दशार तक शक्ति चक्र शिव चक्र से गर्भित है,केवल बुद्धिविशदता तथा स्पष्ट ज्ञान के लिये इनका पृथक विवेचन किया जाता है। लेकन प्रकार के अनुसार चतुर्दशार चक्र के बाहर बने हुये अष्टल पद्म चक्र में अनंगकुसुमादि आठ देवियों की पूजा की जाती है,ये देवियां है - अनंगकुसुमा अनन्गमेखला अनन्गमदना मदनातुरा अनन्गरेखा अनन्गवेगिनी अनन्गांकुशा अनन्गमालिनी। उपर्युक्त तेजोमिथुन ही इन देवियों के रूप में पूजित होता है,इस चक्र का नाम सर्वसंक्षोभिण चक्र है। तन्त्र में क्षोभ सृष्टि को कहते है,कारणात्मक होने से ही यह सृष्टिकारक है। ये अष्टदल अष्टार चक्र के अन्तर्भूत है,अत: आग्नेय खण्ड और प्रमातपुर है। इसमें बिन्दुरूप वह्नि की आठ कलायें होती है। यह बिन्दु अभेदप्रमाता है,विसर्गरूप चतुर्दशार के बाह्यभाग में स्थित बिन्दु अष्टदल के अष्टार चक्र के अन्तर्भूत होने के कारण चतुर्दशार के अभ्यन्तरस्थ हो जाता है। तथा विसर्गात्मक षोषशदल के अभ्यन्तर रहता है। लोक प्रसिद्ध वर्णानुक्रम में अ: विसर्ग के पूर्व ही अं अनुस्वार बिन्दु आता है। तथा विलोम पाठ में विसर्ग बाह्य हो जाता है,इस प्रकार बिन्दु विसर्ग परस्पर बाह्यभ्यन्तर होते हुये तान्त्रिक सिद्धान्त के गूढतम रहस्य का द्योतन करते है। सारांश यह है कि विसर्ग का बहिर्भाव पशुभाव के विकास का और बिन्दु का बहिर्भाव शिवभाव की अभिवृद्धि का सूचक है। अष्टदल पद्य अव्यक्तादि आठ कारणों से बना है। इसी प्रकार षोडशदल कमल विसर्गरूप चन्द्र की षोडसकलायुक्त है। यह चक्र विकाररूप अन्त्यावयवी से घटित है,इस चक्र में कार्याकर्षिणी आदि सोलह शक्तियों के रूप में उपर्युक्त तेजोमिथुन की पूजा होती है। कुछ तान्त्रिक इन्हे नित्यातादात्म्य के नाम से पुकारते है,सोलह स्वर ही इसके षोडशदल है,इसका एक सर्वाशापरिपूरक भी है।क्योंकि कार्याकर्षिणी आदि नित्याओं की तृप्ति से ही सारी आशायें पूरी होती है। इस जडात्मक चान्द्र खण्द का सौर खण्डरूप दशारद्वय में अन्तर्भाव है। सूर्य चन्द्र और अग्नि का समिश्रण है। इसके आग्नेय खण्ड में चतुरस्त्र अवस्थित है। भूपुर चक्र में उपर्युक्त तेजोमिथुन की अणिमादि दस सिद्धियों ( अणिमा लघिमा महिमा ईशित्व वशित्व प्राकाम्य भुक्ति इच्छा प्राप्ति और सर्वकाम) ब्राह्मी (ब्राह्मी माहेशी कौमारी वैष्णवी वाराही ऐन्द्री चामुण्डा महालक्ष्मी) आदि अष्ट लोकमातायें तथा मतान्तर से मुद्राओं के रूप में ( मुद्रायें दस है त्रिखण्डा सर्वसंक्षोभिणी द्राविणी सर्वाकर्षिणी सर्ववशंकरी उन्मादिनी महांकशा खेचरी बीज और योनि) पूजा की जाती है,इसको त्रैलोक्य मोहन चक्र कहते हैं। इस चक्र में को तंत्रों में श्रीगंगा यमुना संगम रूप तीर्थराज प्रयाग कहा गया है। इसमें चित चैत्यरूपी दो श्वेत एवं कृष्ण रूपी नदियों का संगम होता है। सारांश यह है कि यह भूपुर अर्थात चतुरस्त्र चक्र जड चेतन तथा शिव जीव दोनो की समाष्टि है। तंत्रों में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गयी है,वह्नि यानी अष्टार चक्र के अन्तर्गत चितस्वरूप बिन्दु चक्र अपनी रश्मि त्रिकोण के द्वारा आक्रान्त है,तथा चिद्रूप चन्द्र चतुर्दशार चक्र के अन्तर्गत अष्टदल के बाहर अपनी किरण षोडसदल से आच्छन्न है। बिम्ब मध्य में रहता है,और किरणें चारों ओर बाहर छिटकी रहती है,इस सामान्य नियम के अनुसार बिन्दु से बाहर त्रिकोण और अष्टदल से बाहर षोडसदल अवस्थित रहता है। इस प्रकार बिन्दु और षोडसदल दोनो बिम्ब अपने अपने प्रभा चक्र त्रिकोण और षोडसदल के साथ दशारचक्र के मध्य में चतुरस्त्र के एक एक कोण के रूप में परिणत होते है। इसी से इस चक्र की तीर्थराज प्रयाग के साथ उपमा सही प्रतीत होती है। इसी कारण यह यन्त्र पूजा पद्धति में सबसे पहले पूजनीय माना जाता है। पूजन दशारचक्र के मध्य में होना चाहिये। केवल व्युत्पत्ति के लिये ही उसका सबसे बाह्यकक्ष में करना बताया गया है।

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