श्रीयंत्र का स्वरूप (भाग 4)

त्रिकोण चक्र (शक्ति या जीव भाव)

यद्यपि विवर्तवाद या मायावाद के मत से आद्य सिंसृक्षा काल मे ही अक्रम सृष्टि का प्रादुर्भाव सम्भव है,तथा कणादमत के अनुयायी इच्छामात्र  प्रभोसृष्टि: यह कहकर्क्रम सृष्टि का समर्थन करते है,तथापि प्रसिद्ध लोकक्रम से सिद्ध सामान्य विशेष भाव को लेकर स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिये त्रिकोणादि क्रम दिखलाना आचार्यों को अभीष्ट है। बिन्दुचक्र के विवरण में पहले कहा जा चुका है कि विमर्शशक्ति सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से बिन्दु रूप में प्रकट होती है.’विचीकीर्षुर्घनीभूता सा चिदभ्येति बिन्दुताम" इस बिन्दुभाव मे समस्त प्रपंचवासना तथा ज्ञेय ज्ञातृ ज्ञानभाव वट बीज के अन्तर्गत बीज और वृक्ष की भांति सूक्ष्म भाव से लीन रहता है। "यथा न्यग्रोधबीजस्थ: शक्तिरूपो महाद्रुम:,तथा ह्रदयबीजस्थं जगदेतच्चराचरम",पश्चात अन्तर्लीन जगत को व्यक्ति करने की इच्छा से वह बिन्दुअ त्रिकोण रूप में परिणत हो जाता है,या अपने रश्मिस्वरूप त्रिकोण को प्रकट करता है। "कालेन भिद्यमानस्तु स बिन्दुर्भवति त्रिधा" इस त्रिकोण से स्थूल बाह्य सृष्टि का आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जाता है। सृष्टि शब्द अर्थ भेद से दो प्रकार की है। तांत्रिकों का सिद्धान्त है कि अर्थ सृष्टि भी शब्दमूलक ही है,क्योकि संसार का ऐसा कोई भी व्यवहार नही है जो शब्दपूर्वक न हो,सब प्रकार के अर्थ के पूर्व शब्द का ही उदय होता है,तथा शब्द बिना अर्थ के भी अतीत अनागत विषयों एवं सर्वथा असत शशश्रंगादि को भी अपनी वृत्ति से कल्पित कर देता है। अत: शब्द ही अर्थ प्रपंचजाल परावाकरूप शब्द ब्रह्म में लीन हो जाता है,और सृष्टिकाल में पुन: प्रकट हो जाता है। "विश्रान्तमात्मनि पराह्वयवाचि सुप्तौ विश्वं वमत्यथ विबोधपदे विमर्श:।" इस बिन्दु रूप परावाक (मूलकारणभूत बिन्दु) से पश्यन्ती मध्यमा वैखरीरूप त्रिप्टी के द्वारा त्रिकोनात्मक शब्दसृष्टि अभिव्यक्त होती है,बिन्दुरूप परावाक ही कारण बिन्दु है और पश्यन्ती आदि तीनों कार्य बिन्दु कहलाते है,इन चारों को क्रमश: शान्ता वामा ज्येष्ठा और रौद्री तथा अम्बिका इच्छा ज्ञान और क्रिया भी कहा गया है। इनके अधिदैवत अव्यक्त (मूल प्रकृति) ईश्वर हिरण्यगर्भ और विराट है। अधिभूत कामरूप पूर्णगिरि जालन्धर और औड्यान की पूजाओं से परिभाषित चार पीठ है,इनका आध्यात्म मूलाधारस्थ कुण्डलिनी शक्ति है,कुण्डलिनी का परिज्ञान ही तन्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य है,यही परावाक अथवा बिन्दुतत्व का आध्यात्मरूप है। यथा- "या मात्रा त्रपुसीलता तनुलसत्तन्तुस्थितिस्वर्द्धिनी,वाग्बीजे प्रथमे स्थिता तव सदा तां मन्महे ते वयम। शक्ति: कुण्डलिनीति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमा,ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्पृशन्ति जननीगर्भेऽर्भकत्वं नरा:॥" जब यह बिन्दु पूर्वोल्लिखित पश्यन्ती आदि कार्य बिन्दुओं के सृजन में प्रवृत्त होता है,तब यह अव्यक्त कारणबिन्दु ’रव’ नाम से पुकारा जाता है,और यही रव शब्द कहलाता है। "स रव: श्रुतिसम्पन्नै: शब्दब्रह्मेति गीयते।" जब यह निष्पद रवात्मक शब्दब्रह्म वक्ता की इच्छा से उत्पन्न प्रयत्नमात्र से संस्कृत हो शरीर वायु द्वारा नाभि में आता है तव केवल मनोमात्रविमर्श से युक्त अ क च ट त आदि वर्णाविशेषशून्य स्पन्दात्मक प्रकाशमात्र कार्यविन्दु पश्यन्ती वाक कहलाता है,और जब यह रवात्मकब्रह्म पश्यन्तीरूप को प्राप्त होकर शरीर वायु से ह्रदय तक आता है,तब वह निश्चयात्मिका बुद्धि से युक्त होकर अकचटत आदि वर्ण विशेष के सहित स्पन्द से प्रकाशित हो नादरूप मध्यमा वाक होता है,एवं जब वह रवात्मक शब्द मध्यमारूप को प्राप्त होकर ह्रदयस्थ वायु से प्रेरित हो मुख पर्यन्त आता है,तब कण्ठ ताल्वादि स्थानों से स्पृष्ट होकर दूसरे मनुष्यों के श्रोत्रेन्द्रिय से सुनने योग्य अकचटत आदि वर्णों के स्पष्ट प्रकाशरूप में बीजात्मक वैखरी वाक कहलाता है,आचार्यों ने कहा भी है - "मूलाधारात प्रथममुदितो यश्च भाव: पराख्य: पश्चात पश्यन्त्यथ ह्रदयगो बुद्धियुंग मध्यमाख्य:,व्यक्ते वैखर्यथ रुरुदिषोरस्य जन्तो: सुषुम्णा बद्धस्थस्माद्धवति पवनप्रेरिता वर्णसंज्ञा"। वर्णों की अभिव्यक्ति तत्तत्स्थानों से हुये बिना वह दूसरों के द्वारा ग्रहण योग्य नही हो सकती है। इसलिये मुख से नीचे नाभि पर्यन्त स्त्रोतोमार्ग से अवरुद्ध होने से वर्णाभिव्यक्ति नही होती । पान्तु मध्यमा में वह मूल अव्यक्त रव बुद्धि युक्त होता है,अत: बुद्धि रखने वाले सभी जीव अपने अपने भीतर मध्यमा वाक का अनुभव कर सकते है। एवं पश्यन्ती रव में तो केवल मन का ही सम्बन्ध होता है,इसलिये मन प्राणिधान में समर्थ योगी ही पश्यन्ती रव का प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। साधारण जन नही। परावाक तो मन और बुद्धि से भी अतीत है,अत: मन बुद्धि को भी भेदन करके देखने वाले अनुभव करते है । वस्तुत: यही परावाक पूर्णतारूप अहंभाव और प्रकाशरूप है,परन्तु साधारण लोगों को अयं घट:,अयं पट: यानी यह घट है यह पट है,इत्यादि अन्यापेक्ष होने से अपूर्णरूप नाना भाव के द्वारा ही सत्ता का प्रकश मिलता है,इसीलिये वे विकल्प व्याधि ग्रस्त रहते है। ज्ञानी इस नानाभाव यानी अपूर्णता का त्याग कर शुद्ध परावाकरूप पूर्णाहंभाव को ही ग्रहण करते हैं। इसी कारण अज्ञानी बद्ध कहलाते हैं। और ज्ञानी मुक्त कहलाते है। यही परावाक शब्द अर्थ मन्त्र चक्र देह आदि सकलरूप तथा सबका मूल कारण है - "सावश्यं विज्ञेया यत्परिणामाद्भूदेषा,अर्थमयी शब्दमयी चक्रमयी देहमय्यापि च॥" इस महाशक्ति का गुणगान आचार्यों ने इस प्रकार किया है - " शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वाधिनीत्युच्यसे,त्वत्त: केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति स्फ़ुटम,लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरमे ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी,सा त्वं काचिदनिन्त्यरूप महिमा शक्ति: परागीयसे"। इस प्रकार सब मन्त्रों तथा कादिविद्या हादि विद्या षोडसी पंचदशी बाला महात्रिपुरसुन्दरी भुवनेशवरी आदि विद्याओं की जननी परावाक है। जिस प्रकार बिन्दुरूप परावाक सकल शब्दों की जननी है उसी प्रकार वह छत्तिस तत्वों की भी माता है,तन्त्रिकामतानुसार वे छत्तिस तत्य है ये हैं - पांच इन्द्रियों के  विषय,पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा पांच कर्मेन्द्रिय पांच इन्द्रियों के विषय मन बुद्धि अहंकार प्रकृति पुरुष कला अविद्या राग काल नियति माया शुद्धविद्या ईश्वर सदाशिव शक्ति और शिव । यह हुयी अर्थ सृष्टि एवं बिन्दु ही सम्पूर्ण चक्र का मूल है,इसलिये चक्र सृष्टि भी इसी से हुयी है। देह नवचक्रमय है,अत: देह सृष्टि का कारण भी यह बिन्दु ही है। अब हम अपने प्रकृत विषय त्रिकोण पर आते हैं। इस त्रिकोण को उपर्युक्त विवरण के अनुसार योनि चक्र या शक्तिचक्र एवं जीव त्रिकोण या विसर्ग कहते है। पहले कहा जा चुका है,कि बिन्दु शिवरूप है,यही तुरीया अवस्था है। जीव त्रिकोण है,जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति तीन अवस्थायें ही तीन त्रिकोण है,वह शक्ति जो अन्तर्मुख्य होकर शुद्ध अहं भाव को प्राप्त हुयी शिवस्वरूप से विश्राम लेती है,तथा बहिर्मुख होकर जीव भाव से संसरण करती है,शिव जीव की समिष्टभूत क्षमात्मशक्ति त्रिपुर सुन्दरी त्रिपुरा श्री आदि शब्दों से तन्त्रों में वर्णित हुई है। इससे सिद्ध हुआ कि वस्तुत: शिव और शक्ति भिन्न भिन्न नही है,बल्कि अन्तर्मुख और बहिर्मुख द्रष्टि से एक ही महाशक्ति के दो नाम है। तथा इसके साथ ही यह भी ज्ञात हो गया कि तत्वत: बिन्दु और त्रिकोण में भी कोई अन्तर नही है,क्योंकि बिन्दु कारण है और त्रिकोण कार्य है,और कार्य-कारण तादाम्य माना जाता है - "आद्या कारणमन्या कार्यं त्वन्योर्यतस्ततो हेतो:,सैवेयं नहि भेदस्तादात्म्यं हेतुहेतुमतो:॥" इस महाशक्ति के पर अपर एव परापर विलास से ही अहम यानी उत्तम पुरुष इदम यानी प्रथम पुरुष और त्वम यानी मध्यम पुरुष का व्यवहार होता है। जब यह शक्ति दूसरे की अपेक्षा न रखकर पूर्णाहंभाव से "सोऽहम" रूप विमर्श या स्पन्द का प्रकाश करती है,तब शिवतत्व के नाम से अभिहित होती है। और जब अन्यापेक्ष होकर "स इदम" रूप अपूर्ण विमर्श से विलास करती है,तब शुद्ध विद्या कहलाती है। तथा "स इदम-अहमिदम" इन दोनो भावों में समान गुणप्रधानरूप से उदासीन होकर विलास करती है तब सदाशिव या महेश्वर संज्ञा को प्राप्त होती है। सदाशिव और ईश्वर अवस्था में इतना ही अन्तर होता है। कि सदाशिव दशा में अहम के अधिकारभूत चिन्मात्रा में अहमिदम इत्याकारक इदम अंश का उल्लास होता है,और ईश्वर दशा में इदमहम इत्याकारक विमर्श के अन्तर्गत इदम अधिकरण में अहम अंश का स्पष्ट उल्लास होता है,परन्तु शुद्ध विद्या दशा में ग्राह्य ग्राहक भाव का समानाधिकरण्य हो जाता है।
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1 comment:

Unknown said...

शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वाधिनीत्युच्यसे,त्वत्त: केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति स्फ़ुटम,लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरमे ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी,सा त्वं काचिदनिन्त्यरूप महिमा शक्ति: परागीयसे
यह श्लोक कहां का है। बतामे की कृपा करें।

कीर्तिकान्त शर्मा
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kirtiantsharma2@gmail.com