श्रीयंत्र का स्वरूप भाग -3

बिन्दु चक्र यानी पूर्णहन्ता या शिवभाव

बिन्दुचक्र (पूर्णहन्ता या शिव भाव)

श्रीयन्त्र के शब्दार्थ के निर्वचन के प्रसंग में दिखलाया जा चुका है कि प्रलयकाल में जिसे सुषुप्ति भी कहते है,सकल स्थूल सूक्षमजगत के परम कारण में लीन हो जाने से एकमात्र स्वरूपवस्थित रहता है। चक्र में इस दशा की वासना महाविन्दु से व्यवह्रत की जाती है,उस समय भास्यभासक स्त्रष्ट्वय स्त्रष्ट्र भाव कुछ भी नही रहता है। इसे ही शिव विश्राम कहते हैं। मातृकाचक्र विवेक में लिखा है :-

सुप्त्याह्रयं किमपि विश्रमणं शिवस्य।

तथा श्रुति भी कहती है :-

सुषुप्तिकाले सकले विलीने,तमोऽभिभूत: सुखरूपमेति।

इत्यादि.

यह प्रलय दो प्रकार का होता है,एक प्रति पिण्डाण्ड में होने वाला दैनिक प्रलय और दूसरा ब्रह्माण्ड में होने वाला प्रलय जो कल्प के अन्त में होता है। जिस प्रकार पिण्ड की सुषुप्ति का काल परिमाण निर्धारित नही है। केवल अनादि अविद्या परम्परा से जीव अनुवर्तमान वासनावश सुषुप्ति से उठकर जाग्रत व्यवहार करने लगता है। तथा सुषुप्ति काल की सुखमय सत्ता (सच्चिदानन्तरूपता) को सुख से सोया इस सुखपरामर्श के द्वारा निर्धारित करता है। इसी प्रकार इस विश्व को वह आदिविमर्शमयी महाशक्ति अपने आकर गर्भ में लीन कर प्रकाशमय हो जाती है,और कुछ काल (यह अवस्था देशकालादि सर्वविध परिच्छेद से शून्य है,अत: यहाँ काल की कल्पना कल्पित ही समझनी चाहिये ) निस्तब्ध रूप से विश्राम करके विश्व सृजन की इच्छा से पुन: प्रकाश से बाहर सी होकर परब्रह्म के सम्मुख होती है,और ब्रह्म को अपने सम्मुख करती है,दोनों के दर्पण के समान निर्मल होने के कारण परस्पर प्रतिबिम्बित हो जाते है तब दोनो शिव और शक्क्ति के सम्पुटरूप अहं विमर्शमयी आद्याशक्ति का प्रादुर्भाव होता है,सम्पूर्ण विश्व इसी के अन्तर्भूत होता है,कामकलाविलास में लिखा है :-

चित्त्मयोऽहंकार: सुव्यक्ताहार्णसरसाकार:। शिवशक्तिमिथुनपिण्ड: कवलीकृत भुवनमण्डलो जयति॥

इसे ही श्रुति आगम आदि में ईक्षण स्फ़ुरण या विश्वसृजन के नाम से अभिहित किया गया है। श्रुति कहती है - तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय।  अपनी शक्ति में प्रतिबिम्बित ब्रह्म में शक्ति का प्रतिबिम्ब पडने से सर्वप्रथम पूर्णाहंभावविमर्श उत्पन्न होता है। वही समस्य विश्व की सृष्टि का बीज है,जिसे श्रुति में नाम रूपकी अव्याकृत अवस्था कहा गया है। प्रसिद्ध तांत्रिक नागानन्द ने कहा है:-

विमर्शो नाम विश्वाकारेण विश्वप्रकाशेन विश्वसंहारेण वा अकृत्रिमोऽहमिति स्फ़ुरणम।

अर्थात अहम इस प्रकार का स्वाभाविक स्फ़ुरण ज्ञान ही विमर्श शक्ति है,यही शक्ति जगत की सृष्टि स्थिति और प्रलयका कारण है,यद्यपि पूर्णाहंभाव या शुद्धाहन्ता ही ब्रह्मरूप है तथापि जैसे सम्मुखस्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित हुये बिना अपना मुख नही दीख पडता,उसी प्रकार विमर्श शक्ति में प्रतिबिम्बित हुये बिना आत्मा की स्पष्ट अभिव्यक्ति नही हो सकती है,अत: अहंभाव विमर्शमय है। लिखा भी है - "नास्त्येव सा चिदपि यद्यविमृष्टरूपा।" सुरेश्वराचार्य भी बृहदारण्यवर्तिक में लिखते हैं:- "ना त्वात्मा त्वया नहि",इस अहंभावरूप शिवशक्ति सम्पुट म अ ह और अनुस्वार ये तीन वर्ण है,इनमें अकार प्रकाशरूप है "अकार: सर्ववर्णाग्रय: प्रकाश: परम: शिव:"
हकार विमर्श शक्तिरूप है:-
हकारोऽन्त्यकलारूपो विमर्शाख्य: प्रकीर्तित:"

अनुस्वार बिन्दुरूप है और उन दोनों के अविवेक पार्थक्य के अभाव अर्थात एकरूपता का सूचक है। अतएव इस पूर्णाहन्ता को शिवभाव अथवा मोक्ष कहा गया है।

"चयति चोन्नमिताहमशात" (मातृकाचक्रविवेक)
श्रीयंत्र का स्वरूप (भाग - 4)

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