श्रीयंत्र का स्वरूप (भाग 4)

त्रिकोण चक्र (शक्ति या जीव भाव)

यद्यपि विवर्तवाद या मायावाद के मत से आद्य सिंसृक्षा काल मे ही अक्रम सृष्टि का प्रादुर्भाव सम्भव है,तथा कणादमत के अनुयायी इच्छामात्र  प्रभोसृष्टि: यह कहकर्क्रम सृष्टि का समर्थन करते है,तथापि प्रसिद्ध लोकक्रम से सिद्ध सामान्य विशेष भाव को लेकर स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिये त्रिकोणादि क्रम दिखलाना आचार्यों को अभीष्ट है। बिन्दुचक्र के विवरण में पहले कहा जा चुका है कि विमर्शशक्ति सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से बिन्दु रूप में प्रकट होती है.’विचीकीर्षुर्घनीभूता सा चिदभ्येति बिन्दुताम" इस बिन्दुभाव मे समस्त प्रपंचवासना तथा ज्ञेय ज्ञातृ ज्ञानभाव वट बीज के अन्तर्गत बीज और वृक्ष की भांति सूक्ष्म भाव से लीन रहता है। "यथा न्यग्रोधबीजस्थ: शक्तिरूपो महाद्रुम:,तथा ह्रदयबीजस्थं जगदेतच्चराचरम",पश्चात अन्तर्लीन जगत को व्यक्ति करने की इच्छा से वह बिन्दुअ त्रिकोण रूप में परिणत हो जाता है,या अपने रश्मिस्वरूप त्रिकोण को प्रकट करता है। "कालेन भिद्यमानस्तु स बिन्दुर्भवति त्रिधा" इस त्रिकोण से स्थूल बाह्य सृष्टि का आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जाता है। सृष्टि शब्द अर्थ भेद से दो प्रकार की है। तांत्रिकों का सिद्धान्त है कि अर्थ सृष्टि भी शब्दमूलक ही है,क्योकि संसार का ऐसा कोई भी व्यवहार नही है जो शब्दपूर्वक न हो,सब प्रकार के अर्थ के पूर्व शब्द का ही उदय होता है,तथा शब्द बिना अर्थ के भी अतीत अनागत विषयों एवं सर्वथा असत शशश्रंगादि को भी अपनी वृत्ति से कल्पित कर देता है। अत: शब्द ही अर्थ प्रपंचजाल परावाकरूप शब्द ब्रह्म में लीन हो जाता है,और सृष्टिकाल में पुन: प्रकट हो जाता है। "विश्रान्तमात्मनि पराह्वयवाचि सुप्तौ विश्वं वमत्यथ विबोधपदे विमर्श:।" इस बिन्दु रूप परावाक (मूलकारणभूत बिन्दु) से पश्यन्ती मध्यमा वैखरीरूप त्रिप्टी के द्वारा त्रिकोनात्मक शब्दसृष्टि अभिव्यक्त होती है,बिन्दुरूप परावाक ही कारण बिन्दु है और पश्यन्ती आदि तीनों कार्य बिन्दु कहलाते है,इन चारों को क्रमश: शान्ता वामा ज्येष्ठा और रौद्री तथा अम्बिका इच्छा ज्ञान और क्रिया भी कहा गया है। इनके अधिदैवत अव्यक्त (मूल प्रकृति) ईश्वर हिरण्यगर्भ और विराट है। अधिभूत कामरूप पूर्णगिरि जालन्धर और औड्यान की पूजाओं से परिभाषित चार पीठ है,इनका आध्यात्म मूलाधारस्थ कुण्डलिनी शक्ति है,कुण्डलिनी का परिज्ञान ही तन्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य है,यही परावाक अथवा बिन्दुतत्व का आध्यात्मरूप है। यथा- "या मात्रा त्रपुसीलता तनुलसत्तन्तुस्थितिस्वर्द्धिनी,वाग्बीजे प्रथमे स्थिता तव सदा तां मन्महे ते वयम। शक्ति: कुण्डलिनीति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमा,ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्पृशन्ति जननीगर्भेऽर्भकत्वं नरा:॥" जब यह बिन्दु पूर्वोल्लिखित पश्यन्ती आदि कार्य बिन्दुओं के सृजन में प्रवृत्त होता है,तब यह अव्यक्त कारणबिन्दु ’रव’ नाम से पुकारा जाता है,और यही रव शब्द कहलाता है। "स रव: श्रुतिसम्पन्नै: शब्दब्रह्मेति गीयते।" जब यह निष्पद रवात्मक शब्दब्रह्म वक्ता की इच्छा से उत्पन्न प्रयत्नमात्र से संस्कृत हो शरीर वायु द्वारा नाभि में आता है तव केवल मनोमात्रविमर्श से युक्त अ क च ट त आदि वर्णाविशेषशून्य स्पन्दात्मक प्रकाशमात्र कार्यविन्दु पश्यन्ती वाक कहलाता है,और जब यह रवात्मकब्रह्म पश्यन्तीरूप को प्राप्त होकर शरीर वायु से ह्रदय तक आता है,तब वह निश्चयात्मिका बुद्धि से युक्त होकर अकचटत आदि वर्ण विशेष के सहित स्पन्द से प्रकाशित हो नादरूप मध्यमा वाक होता है,एवं जब वह रवात्मक शब्द मध्यमारूप को प्राप्त होकर ह्रदयस्थ वायु से प्रेरित हो मुख पर्यन्त आता है,तब कण्ठ ताल्वादि स्थानों से स्पृष्ट होकर दूसरे मनुष्यों के श्रोत्रेन्द्रिय से सुनने योग्य अकचटत आदि वर्णों के स्पष्ट प्रकाशरूप में बीजात्मक वैखरी वाक कहलाता है,आचार्यों ने कहा भी है - "मूलाधारात प्रथममुदितो यश्च भाव: पराख्य: पश्चात पश्यन्त्यथ ह्रदयगो बुद्धियुंग मध्यमाख्य:,व्यक्ते वैखर्यथ रुरुदिषोरस्य जन्तो: सुषुम्णा बद्धस्थस्माद्धवति पवनप्रेरिता वर्णसंज्ञा"। वर्णों की अभिव्यक्ति तत्तत्स्थानों से हुये बिना वह दूसरों के द्वारा ग्रहण योग्य नही हो सकती है। इसलिये मुख से नीचे नाभि पर्यन्त स्त्रोतोमार्ग से अवरुद्ध होने से वर्णाभिव्यक्ति नही होती । पान्तु मध्यमा में वह मूल अव्यक्त रव बुद्धि युक्त होता है,अत: बुद्धि रखने वाले सभी जीव अपने अपने भीतर मध्यमा वाक का अनुभव कर सकते है। एवं पश्यन्ती रव में तो केवल मन का ही सम्बन्ध होता है,इसलिये मन प्राणिधान में समर्थ योगी ही पश्यन्ती रव का प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। साधारण जन नही। परावाक तो मन और बुद्धि से भी अतीत है,अत: मन बुद्धि को भी भेदन करके देखने वाले अनुभव करते है । वस्तुत: यही परावाक पूर्णतारूप अहंभाव और प्रकाशरूप है,परन्तु साधारण लोगों को अयं घट:,अयं पट: यानी यह घट है यह पट है,इत्यादि अन्यापेक्ष होने से अपूर्णरूप नाना भाव के द्वारा ही सत्ता का प्रकश मिलता है,इसीलिये वे विकल्प व्याधि ग्रस्त रहते है। ज्ञानी इस नानाभाव यानी अपूर्णता का त्याग कर शुद्ध परावाकरूप पूर्णाहंभाव को ही ग्रहण करते हैं। इसी कारण अज्ञानी बद्ध कहलाते हैं। और ज्ञानी मुक्त कहलाते है। यही परावाक शब्द अर्थ मन्त्र चक्र देह आदि सकलरूप तथा सबका मूल कारण है - "सावश्यं विज्ञेया यत्परिणामाद्भूदेषा,अर्थमयी शब्दमयी चक्रमयी देहमय्यापि च॥" इस महाशक्ति का गुणगान आचार्यों ने इस प्रकार किया है - " शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वाधिनीत्युच्यसे,त्वत्त: केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति स्फ़ुटम,लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरमे ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी,सा त्वं काचिदनिन्त्यरूप महिमा शक्ति: परागीयसे"। इस प्रकार सब मन्त्रों तथा कादिविद्या हादि विद्या षोडसी पंचदशी बाला महात्रिपुरसुन्दरी भुवनेशवरी आदि विद्याओं की जननी परावाक है। जिस प्रकार बिन्दुरूप परावाक सकल शब्दों की जननी है उसी प्रकार वह छत्तिस तत्वों की भी माता है,तन्त्रिकामतानुसार वे छत्तिस तत्य है ये हैं - पांच इन्द्रियों के  विषय,पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा पांच कर्मेन्द्रिय पांच इन्द्रियों के विषय मन बुद्धि अहंकार प्रकृति पुरुष कला अविद्या राग काल नियति माया शुद्धविद्या ईश्वर सदाशिव शक्ति और शिव । यह हुयी अर्थ सृष्टि एवं बिन्दु ही सम्पूर्ण चक्र का मूल है,इसलिये चक्र सृष्टि भी इसी से हुयी है। देह नवचक्रमय है,अत: देह सृष्टि का कारण भी यह बिन्दु ही है। अब हम अपने प्रकृत विषय त्रिकोण पर आते हैं। इस त्रिकोण को उपर्युक्त विवरण के अनुसार योनि चक्र या शक्तिचक्र एवं जीव त्रिकोण या विसर्ग कहते है। पहले कहा जा चुका है,कि बिन्दु शिवरूप है,यही तुरीया अवस्था है। जीव त्रिकोण है,जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति तीन अवस्थायें ही तीन त्रिकोण है,वह शक्ति जो अन्तर्मुख्य होकर शुद्ध अहं भाव को प्राप्त हुयी शिवस्वरूप से विश्राम लेती है,तथा बहिर्मुख होकर जीव भाव से संसरण करती है,शिव जीव की समिष्टभूत क्षमात्मशक्ति त्रिपुर सुन्दरी त्रिपुरा श्री आदि शब्दों से तन्त्रों में वर्णित हुई है। इससे सिद्ध हुआ कि वस्तुत: शिव और शक्ति भिन्न भिन्न नही है,बल्कि अन्तर्मुख और बहिर्मुख द्रष्टि से एक ही महाशक्ति के दो नाम है। तथा इसके साथ ही यह भी ज्ञात हो गया कि तत्वत: बिन्दु और त्रिकोण में भी कोई अन्तर नही है,क्योंकि बिन्दु कारण है और त्रिकोण कार्य है,और कार्य-कारण तादाम्य माना जाता है - "आद्या कारणमन्या कार्यं त्वन्योर्यतस्ततो हेतो:,सैवेयं नहि भेदस्तादात्म्यं हेतुहेतुमतो:॥" इस महाशक्ति के पर अपर एव परापर विलास से ही अहम यानी उत्तम पुरुष इदम यानी प्रथम पुरुष और त्वम यानी मध्यम पुरुष का व्यवहार होता है। जब यह शक्ति दूसरे की अपेक्षा न रखकर पूर्णाहंभाव से "सोऽहम" रूप विमर्श या स्पन्द का प्रकाश करती है,तब शिवतत्व के नाम से अभिहित होती है। और जब अन्यापेक्ष होकर "स इदम" रूप अपूर्ण विमर्श से विलास करती है,तब शुद्ध विद्या कहलाती है। तथा "स इदम-अहमिदम" इन दोनो भावों में समान गुणप्रधानरूप से उदासीन होकर विलास करती है तब सदाशिव या महेश्वर संज्ञा को प्राप्त होती है। सदाशिव और ईश्वर अवस्था में इतना ही अन्तर होता है। कि सदाशिव दशा में अहम के अधिकारभूत चिन्मात्रा में अहमिदम इत्याकारक इदम अंश का उल्लास होता है,और ईश्वर दशा में इदमहम इत्याकारक विमर्श के अन्तर्गत इदम अधिकरण में अहम अंश का स्पष्ट उल्लास होता है,परन्तु शुद्ध विद्या दशा में ग्राह्य ग्राहक भाव का समानाधिकरण्य हो जाता है।
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श्रीयंत्र का स्वरूप भाग -3

बिन्दु चक्र यानी पूर्णहन्ता या शिवभाव

बिन्दुचक्र (पूर्णहन्ता या शिव भाव)

श्रीयन्त्र के शब्दार्थ के निर्वचन के प्रसंग में दिखलाया जा चुका है कि प्रलयकाल में जिसे सुषुप्ति भी कहते है,सकल स्थूल सूक्षमजगत के परम कारण में लीन हो जाने से एकमात्र स्वरूपवस्थित रहता है। चक्र में इस दशा की वासना महाविन्दु से व्यवह्रत की जाती है,उस समय भास्यभासक स्त्रष्ट्वय स्त्रष्ट्र भाव कुछ भी नही रहता है। इसे ही शिव विश्राम कहते हैं। मातृकाचक्र विवेक में लिखा है :-

सुप्त्याह्रयं किमपि विश्रमणं शिवस्य।

तथा श्रुति भी कहती है :-

सुषुप्तिकाले सकले विलीने,तमोऽभिभूत: सुखरूपमेति।

इत्यादि.

यह प्रलय दो प्रकार का होता है,एक प्रति पिण्डाण्ड में होने वाला दैनिक प्रलय और दूसरा ब्रह्माण्ड में होने वाला प्रलय जो कल्प के अन्त में होता है। जिस प्रकार पिण्ड की सुषुप्ति का काल परिमाण निर्धारित नही है। केवल अनादि अविद्या परम्परा से जीव अनुवर्तमान वासनावश सुषुप्ति से उठकर जाग्रत व्यवहार करने लगता है। तथा सुषुप्ति काल की सुखमय सत्ता (सच्चिदानन्तरूपता) को सुख से सोया इस सुखपरामर्श के द्वारा निर्धारित करता है। इसी प्रकार इस विश्व को वह आदिविमर्शमयी महाशक्ति अपने आकर गर्भ में लीन कर प्रकाशमय हो जाती है,और कुछ काल (यह अवस्था देशकालादि सर्वविध परिच्छेद से शून्य है,अत: यहाँ काल की कल्पना कल्पित ही समझनी चाहिये ) निस्तब्ध रूप से विश्राम करके विश्व सृजन की इच्छा से पुन: प्रकाश से बाहर सी होकर परब्रह्म के सम्मुख होती है,और ब्रह्म को अपने सम्मुख करती है,दोनों के दर्पण के समान निर्मल होने के कारण परस्पर प्रतिबिम्बित हो जाते है तब दोनो शिव और शक्क्ति के सम्पुटरूप अहं विमर्शमयी आद्याशक्ति का प्रादुर्भाव होता है,सम्पूर्ण विश्व इसी के अन्तर्भूत होता है,कामकलाविलास में लिखा है :-

चित्त्मयोऽहंकार: सुव्यक्ताहार्णसरसाकार:। शिवशक्तिमिथुनपिण्ड: कवलीकृत भुवनमण्डलो जयति॥

इसे ही श्रुति आगम आदि में ईक्षण स्फ़ुरण या विश्वसृजन के नाम से अभिहित किया गया है। श्रुति कहती है - तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय।  अपनी शक्ति में प्रतिबिम्बित ब्रह्म में शक्ति का प्रतिबिम्ब पडने से सर्वप्रथम पूर्णाहंभावविमर्श उत्पन्न होता है। वही समस्य विश्व की सृष्टि का बीज है,जिसे श्रुति में नाम रूपकी अव्याकृत अवस्था कहा गया है। प्रसिद्ध तांत्रिक नागानन्द ने कहा है:-

विमर्शो नाम विश्वाकारेण विश्वप्रकाशेन विश्वसंहारेण वा अकृत्रिमोऽहमिति स्फ़ुरणम।

अर्थात अहम इस प्रकार का स्वाभाविक स्फ़ुरण ज्ञान ही विमर्श शक्ति है,यही शक्ति जगत की सृष्टि स्थिति और प्रलयका कारण है,यद्यपि पूर्णाहंभाव या शुद्धाहन्ता ही ब्रह्मरूप है तथापि जैसे सम्मुखस्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित हुये बिना अपना मुख नही दीख पडता,उसी प्रकार विमर्श शक्ति में प्रतिबिम्बित हुये बिना आत्मा की स्पष्ट अभिव्यक्ति नही हो सकती है,अत: अहंभाव विमर्शमय है। लिखा भी है - "नास्त्येव सा चिदपि यद्यविमृष्टरूपा।" सुरेश्वराचार्य भी बृहदारण्यवर्तिक में लिखते हैं:- "ना त्वात्मा त्वया नहि",इस अहंभावरूप शिवशक्ति सम्पुट म अ ह और अनुस्वार ये तीन वर्ण है,इनमें अकार प्रकाशरूप है "अकार: सर्ववर्णाग्रय: प्रकाश: परम: शिव:"
हकार विमर्श शक्तिरूप है:-
हकारोऽन्त्यकलारूपो विमर्शाख्य: प्रकीर्तित:"

अनुस्वार बिन्दुरूप है और उन दोनों के अविवेक पार्थक्य के अभाव अर्थात एकरूपता का सूचक है। अतएव इस पूर्णाहन्ता को शिवभाव अथवा मोक्ष कहा गया है।

"चयति चोन्नमिताहमशात" (मातृकाचक्रविवेक)
श्रीयंत्र का स्वरूप (भाग - 4)

श्रीयंत्र का स्वरूप भाग -2

भैरवमाला तंत्र में लिखाहै -
"चक्रं त्रिपुरसुन्दर्या ब्रह्माण्डाकार्मीश्वरि।" अर्थात हे ईश्वरि ! त्रिपुरसुन्दरी का चक्र ब्रह्माण्डाकार है।

भावनोपनिषद में भी कहा गया है -
"नवचक्रमयो देह:।"
अब संक्षेप में श्री  शब्द के अर्थ का निर्वचन किया जाता है। "श्रयते या सा श्री:" अर्थात जो श्रयण की वही श्री है। श्रयणार्थक धातु सकर्मक है,अत: वह कर्म की अपेक्षा रखता है,आगम अर्था गुरुपदेश तथा प्राचीन परम्परागत व्यवहार के अनुसार श्रीका श्रयण कर्म हरि (ब्रह्मरे) के अतिरिक्त अन्य कोई नही हो सकता है। अत: जो नित्य यह शंका हो सकती है,कि यह ब्रह्म को श्रयण करने वाली वस्तु यति नित्य है,तो द्वेत हो जाता है,और यदि अनित्य है तो घटपटादि की भांति यह भी ब्रह्माश्रित हुयी,फ़िर इसे अलग पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है,इसका उत्तर यह कि जिस प्रकार प्रकाश या उष्णता अग्नि से अभिन्न है,और उसके बिना नही ठहर सकती,उसी प्रकार ब्रह्म से उसकी शक्ति श्री भी अभिन्न है,और उससे कभी अलग नही हो सकती। आगम कहते हैं :-
न शिवेन विना देवी न देव्या च विना शिव:
नान्योरन्तरं किंचिच्चन्द्रचन्द्रिकयोरिव॥
श्री के ही कारण ब्रह्म को अनन्त शक्ति अथवा सृष्टि स्थिति और पालन करने वाला कहते है। श्रीशंकराचार्य कहते है:- शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुं। न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि॥ यह महाशक्ति विश्रमण  अवस्था (प्रलय) में प्रकाशमय ब्रह्मरूप होकर रहती है। इस अवस्था में शक्ति का पृथक विवेक नही रहता। अनावृत आकाशस्थ प्रकाश की भांति यह ब्रह्म में लीन हुयी रहती है,तब इस्का महाबिन्दुरूप या प्रब्रह्म परमात्मरूप से वर्णन करते है। इसी कारण प्रलय काल में अनन्त शक्ति ब्रह्म के अविनाशी होने के कारण सदा वर्तमान रहने पर भी सृष्टि नही होती । क्योंकि ब्रह्म को अनन्त शक्ति देने वाली इस महाशक्ति के उस काल में तल्लीन हो जाने के कारण ब्रह्म अशक्त सा होजाता है। जिस प्रकार दिन में भी निरावरण आकाश में सूर्य का आतप बिना पक्षी मकान छाता आदि के स्वयं प्रकाशित नहीं होता,इसी प्रकार अनन्त शक्ति ब्रह्म के रहते भी इस शक्तियों की भी शक्ति के (जिसे आगम में विमर्श शक्ति भी कहते हैं) सम्मुख हुये बिना उस ब्रह्म में कोई शक्ति नही आ सकती है। क्योंकि वह स्वयं निर्गुण निष्कल निरंजन है। इस अवस्था का आगमिकों ने इस प्रकार वर्णन किया है :-
"आचिन्त्यामिताकारशक्तिस्वरूपा,
                   प्रतिव्यक्तयधिष्ठानसत्तैकमूर्ति:।
गुणातीतनिर्द्वन्द्वबोधेकगम्या,
                 त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा॥"
इस प्रकार की श्री को जानना प्रत्येक मुमुक्ष का कर्तव्य है। कामकलाविलास आगम में लिखा है :-
विदिता येन स मुक्तोभवति महात्रिपुर्सुदरीरूप:।
अत: इस प्रकार की श्रीसुन्दरी के यंत्र (गृह) का ज्ञान प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है। यह श्रीयंत्र रूप श्रीत्रिपुरसुन्दरी का गृह जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तथा प्रमाता प्रमेय प्रमाणरूप से त्रिपुरात्मक तथा सूर्य चन्द्र अग्नि भेद से त्रिखंण्डात्मक कहलाता है।
पुरत्रयंच चक्रस्य सोमसूर्यानलात्मकम।
तथा
त्रिखण्डं मातृत्काचक्रं सोमसूर्यानलात्मकम।
 इस प्रकार श्रीचक्र जैसे विश्वमय है,वैसे शब्द सृष्टि मातृकामय है। इससे यह सिद्ध हुआ कि श्रीयंत्र ब्रह्माण्ड एवं पिण्डाण्ड स्वरूप है। इसमें शब्दार्थ भेद से द्विविधि सृष्टि अर्थ सृष्टि तत्वात्मिका है,और शब्द सृष्टि मातृकारूप है। मातृका के भी स्वर स्पर्श और व्यापक तीन खंड चान्द्र सौर आग्नेय रूप है। यह हुयी ब्रह्माण्ड की बात। पिण्डाण्ड में भी सिर ह्रदय मूलाधारान्त तीन भाग तेजस्त्रयात्मक है,हाथ मध्यमभाग की शाखा है,और पैर अन्त्य भाग की। श्रीचक्र भी :-
चतुर्भि: शिवचक्रैश्च शक्तिचक्रैश्च पंचभि।
शिवशक्त्यात्मकं ज्ञेयं श्रीचक्रं शिवयोर्वपु:॥
के अनुसार पांच शक्ति - त्रिकोण,अष्टार,अन्तर्दशार,बहिर्दशार,और चतुर्दशार ये पांच अधोमुख त्रिकोण शक्तिचक्र है,चार वह्रि (शिव) -बिन्दु अष्टदल षोडशादल भूपुर या चतुरस्त्र ये चार ऊर्ध्वमुख त्रिकोण वह्रि (शिव) चक्र है। से बना हुआ तेजस्त्रयात्मक होने से प्रमातृ प्रमाण प्रमेय रूप से पुरत्रयात्मक है। इनमें बिन्दु त्रिकोण अष्टार और अष्टदल रूप आग्नेय खंड प्रमातृपुर है,दशारद्वय और चतुरस्त्ररूप सौरखंड प्रमाणपुर है,तथा चतुर्द्शार एवं षोडशदलरूप चान्द्रखंड प्रमेयपुर है। इसी प्रकार वामा ज्येष्ठा और रौद्री (इच्छा ज्ञान और क्रिया) रूप से भी वह त्रियात्मक है। नाद बिन्दु और कलारूप से भी त्रिरूप है। इस श्रीयंत्र की शरीरस्थ नव चक्रों के साथ तांत्रिक इस प्रकार एक्य भावना करते है। यद्यपि लिंग शरीर में सुषुम्णा नाडी को आश्रयण किये हुये बत्ती पद्य है,तथापि यहां नव चक्रो के सादृश्य से नव पद्मों का ही उल्लेख किया जाता है। सुषुम्णा के दोनो भागों में ऊर्ध्व एवं अधोमुख दो सहस्त्रचार है,और मध्य में इस प्रकार नव चक्र है-
  1. भ्रूमध्य  आज्ञाचक्र    द्विदल      बिन्दु
  2. लम्बिका   इन्द्रयोनि   अष्टदल   त्रिकोण
  3. कण्ठ   विशुद्धि   षोडशदल  अष्टकोण
  4. ह्रदय   अनाहत  द्वादशदल   अन्तर्दशार
  5. नाभि   मणिपुर   दशदल  बहिर्दशार
  6. वास्ति  स्वाधिष्ठान  षटदल  चतुर्दशार
  7. मूलाधार मूलाधार चतुर्दल अष्टदल
  8. तदधोदेश  कुल षटदल षोडसदल
  9. तदधोदेश  अकुल  सहस्त्रदल भूपुर
ब्रह्मरन्ध्र में स्थित महाबिन्दु सहस्त्रार है,इस प्रकार श्रीचक्र और शरीर चक्र का ऐक्य सम्पादन होता है। इसी प्रकार मातृकाचक्र का भी इन दोनों चक्रों के साथ ऐक्य पाया जाता है। षोडस दल और चतुर्दशार स्वरमय है,दशारद्वय क से लेकर न पर्यन्त बीस वर्णमय है,अष्टार अन्त:स्थ और ऊष्मरूप है,चतुरस्त्र प से लेकर म पर्यन्त वर्णमय है,अष्टदल अकचटतपादि वर्गाष्टकरूप है,बिन्दु क्षकाररूप त्रिकोण मकाररूप और महाविन्दु क्षकार मकार समष्टिरूप है,शरीर चक्र में कण्ठ में स्वर ह्रदय में क से ठ पर्यन्त नाभि में ड से फ़ पर्यन्त स्वाधिष्ठान में ब से ल पर्यन्त मूलाधार में व से स पर्यन्त वर्ण तथा आज्ञाचक्र में ह और क्ष यह दो वर्ण हैं।
श्रीचक्र की रचना दो दो त्रिकोंणो के परस्पर श्लेष से होती है,इस प्रकार इसमें नव त्रिकोण होते है। इस प्रकार की रचना से पिण्डाण्ड के भीतर ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के भीतर पिण्डाण्ड का समावेश सूचित होता है। श्रीयंत्र को सृष्टि स्थिति प्रलयात्मक माना गया है,इसमें विन्दुचक्र शिव की मूल प्रकृति से बना होने के कारण प्रकृतिस्वरूप है। शेष आठ चक्र प्रकृति विकृति उभयात्मक है। समूर्ण श्रीचक्र इस प्रकार भी त्रितयात्मक है। बिन्दु त्रिकोण अष्टार सृष्टि चक्र है,दशारद्वय और चतुरदशार स्थिति चक्र है,तथा अष्टदल षोडशदल और भूपुर विन्द्वन्त भूपुरान्त चक्र को सृष्टिक्रम तथा भूपुरादि विन्द्वन्त चक्र को संहार क्रम कहते हैं। इस प्रत्येक खण्ड में आदि मध्य अन्त या इच्छा ज्ञान क्रिया रूप से त्रिपुटी समझना चाहिये। यह समान्यतया श्रीचक्र का संक्षिप्त परिचय है।
आगे हम जानेंगे बिन्दुचक्र यानी पूर्णहन्ता या शिवभाव.

श्रीयंत्र का स्वरूप

 अति प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में श्रीविद्या की उपासना प्रचलित है। श्रीमत शंकराचार्य के परमगुरु गोडपादस्वामी स्वयं शंकराचार्य तथा तदनुवर्ती सुरेश्वर पद्यमपाद विद्यारण्य स्वामी प्रभृति अनेकों वेदान्ती आचार्य श्रीविद्या के उपासक थे। मीमांसकों में आचार्यप्रवर खण्डदेव के शिष्य शम्भु भट्ट भास्करराय प्रभृति भी इस विद्या के उपासक थे। महाप्रभु चैतन्य देव के द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायगत सिद्धान्त के मूल में भी इसी साधना का प्रभाव स्पष्टत: अथवा किसी किसी स्थान में अर्द्धप्रछन्न भाव में परिलक्षित होता है। महाप्रभु श्री चैतन्य के नित्यसंगी नित्यानन्द महाप्रभु श्रीविद्या के उपासक थे। सह सर्वादिसम्मत है। शैवाचार्यगण में अभिनवगुप्त प्रभृति शिवोपासना के साथ साथ श्रीविद्या की भी उपासना करते थे,ऐसे प्रसिद्धि है। आज भी भारवर्ष में अनेकों स्थानों में यह सम्प्रदायक्रम म्लानभाव में होने पर भी अविच्छिन्नरूप में चला आ रहा है। दस महाविद्या में षोडशी नाम्नी तृतीया महाविद्या ही श्रीविद्या का स्वरूप है। सुन्दरी ललिता त्रिपुरासुन्दरी प्रभृति इसी के अपर नाम है। इस उपासना के तत्व को समझने के लिये सर्वप्रथम देवी के स्वरूपभूत चक्र वा यन्त्र को अच्छी तरह से समझना होगा। पांच शक्ति चक्र रूप अधोमुख त्रिकोण और चार शिवचक्रमय ऊर्ध्वमुख त्रिकोण के एकत्र सम्मिलित होने से श्रीचक्र निर्मित होता है। इस चक्र के तत्व और लेखन प्रकार को साधारणत: बहुतेरे मनुष्य नही जानते और इसे अच्छी तरह से समझे बिना शक्तिसाधना की एक दिशा का बिलकुल ही ज्ञान नही होता।
नवचक्र
  1. बिन्दु तथा महाबिन्दु :- मूलकारण महात्रिपुर सुन्दरी कामेश्वर कामेश्वरी सामरस्य जगत की मूल योनि तथा शिवभाग.
  2. त्रिकोण :- आद्या विमर्शशक्ति या जीव भाव शब्द अर्थरूपी सृष्ति की कारणात्मिका पराशक्ति अहंभाव एवं जीव तत्व
  3. अष्टार - पुर्यष्टक कारण शरीर लिंगशरीर का कारण
  4. अन्तर्दशार- इन्द्रियवासना लिंग शरीर.
  5. बहिर्दशार- तन्मात्रा तथा पंचभूत (इन्द्रिय विषय)
  6. चतुर्दशार- जाग्रत स्थूल शरीर
  7. अष्टदल- अष्टारवासना
  8. षोडसदल- दशारद्वय वासना.
  9. भूपुर- बिन्दु त्रिकोण अष्टदल षोडसदल इन चारों की समष्टि प्रमातृपुर और प्रमाणपुर का पशुपदीय प्रकृति मन बुद्धि अहंकार और शिवपदीय शुद्ध विद्यादितत्वचतुष्टय का सामरस्य।
नवचक्रों के देवता और नाम के संकेत
  1. सर्वानन्दमय  -   महात्रुपुरसुन्दरी
  2. सर्वसिद्धिप्रद - त्रिपुराम्बा
  3. सर्वरोगहर -त्रिपुरसिद्धा
  4. सर्वरक्षाकर- त्रिपुरमालिनी
  5. सर्वार्थसाधक - त्रिपुरश्री
  6. सर्वसौभाग्यदायक - त्रिपुरवासिनी
  7. सर्वसंक्षोभणकारक- त्रिपुर सुन्दरी
  8. सर्वाशापरिपूरक - त्रिपुरेशी
  9. त्रैलोक्यमोहन - त्रिपुरा.
यही नवावरण पूजा के नव देवता है,मतान्तर से इन्हे प्रकटा गुप्ता गुप्ततरा परा सम्प्रदाया कुलकौला निगर्भा अतिरहस्या परापरातिरहस्या इत्यादि नाम से भी पुकारते हैं।
श्रीयंत्र का शब्दार्थ
श्रीयंत्र का सरल अर्थ है - श्री का यंत्र अर्थात गृह। नियमनार्थक यम धातु से बना यंत्र शब्द गृह अर्थ को ही प्रकट करता है। क्योंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियंत्रण होता है। श्रीविद्या को ढूंढने के लिये उसके गृह श्रीयंत्र की ही शरण लेनी होगी। आगे श्री अर्था श्रीविद्या के परिचय से ज्ञात होगा कि वह उपास्य और उपेय दोनों है। उपेय वस्तु को उसके अनुकूल स्था ही अन्वेषण करने से सिद्धि होती है,अन्यथा मनुष्य उपहासास्पद बनता है। आदि कवि श्रीवालमीकिनी ने श्रीसीताजी के अन्वेषण में तत्पर श्रीहनुमानजी के द्वारा कहलाया है- "यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते",अर्थात जिस प्राणी की जो योनि होती है वह उसी में ढूंढा जा सकता है। भगवान शंकराचार्य ने भी यंत्र का उद्धार देते हुये "तव शरणकोणा: परिणत:" इस वाक्य में यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का प्रयोग किया है। इस न्याय से उत्तरभारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थानो की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में मिलते थे,और अब भी थोडे बहुत पाये जाते है। अस्तु यह विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। यहां विश्व शब्द से पिण्डाण्ड एवं ब्रह्मांड दोनो का ग्रहण है। मायाण्ड प्रकृत्यण्ड भी स्थूल सूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाता है,यह आगे चलकर ततद्विशेष यंत्रों के विवरण से विशेषतया स्पष्ट हो जायेगा।
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