सामजस्य

घर परिवार और मुहल्ला समाज मे हर आदमी को अपने अपने अनुसार सामजस्य बैठाकर चलना पडता है। दूसरे मायने मे कहा जाये तो हर आदमी को अपने अपने अनुसार बांध कर चलना पड सकता है। घर के खर्चो मे भी और बाहर के रिस्तो मे भी अपने को बांध कर चलना बहुत जरूरी है। जैसे अचानक घर मे गैस खत्म हो जाये तो कोई बात नही चूल्हे पर रोटी बनाने मे कोई हर्ज नही है यह नही होना चाहिये कि गैस के खत्म होने पर घर मे कोहराम मच जाये कि गैस ही नही है और रोटी कैसे बने ? अगर रोटी नही बनेगी तो भोजन कैसे प्राप्त होगा लेकिन घर के अन्दर अगर समझदार लोग है तो महसूस भी नही होने देंगे कि कब गैस खत्म हो गयी और कब आ गयी लेकिन रोटी समय से मिलती रही। वक्त वेवक्त के लिये घर मे एक लोहे का बना हुआ उठाऊ चूल्हा जरूर होना चाहिये सर्दी मे कभी कभी आग तापने की जरूरत पड ही जाती है और इस चूल्हे के होने से एक तो घर के अन्दर का लकडी का बेकार का सामान भी काम मे आजाता है दूसरे ठंड से दूर होने के लिये आग तापने को भी मिल जाती है लेकिन यह काम उन घरो मे नही हो सकता है जहां वातानुकूलित घर है वहां तो इस बात से दूर ही रहना पड सकता है। कभी कभी कुकर पर बनी सब्जियां भी खाने से जी भर जाता है फ़िर तलाश होती है किसी ऐसे होटल की जहां पर कडाही का बना खाना मिले और कढाई मे भी तभी खाना पकाया जा सकता है जब धीमी आंच पर सब्जी को बनाया गया हो और जब धीमी धीमी आंच पर सब्जी बनेगी तो बहुत ही उम्दा स्वाद भी होगा और रोजाना की गैस की पकी सब्जी खाने से स्वाद मे भी बदलाव होगा।
 अगर कढाही मे आलू के साथ पनीर भी डाला गया हो और मटर को भी हरी मिर्च के साथ डालकर धीमी आंच मे पकाया गया हो तो उस सब्जी का स्वाद भी निराला ही होगा जब पकाने वाले को कला भी आती हो और वह उन बातो से दूर हो कि काली कढाही मे सब्जी बनाते वक्त सेहत के लिये भी कोई दिक्कत आ सकती है,जब आलू को उगाते समय खादो का प्रयोग किया जाता है दूध का पनीर बनाते वक्त यह ध्यान नही रखा जाता है कि दूध को फ़ाडने के वक्त जो कैमिकल प्रयोग मे लाये जाते है वे किस प्रकार से बने है या पनीर को बनाते समय किस मशीन को कैसे प्रयोग मे लाया गया है तो फ़ालतू मे अपने घर पर उन बातो को नही पैदा करना चाहिये कि आलू के साथ पनीर बनाने के वक्त मे जलने वाली आग मे कौन सी लकडी का प्रयोग किया गया है। वैसे भी लकडी के लिये जंगल अब खोजने के बाद भी नही मिलते है वह तो भला हो कांग्रेस का जिसने विलायती बबूल को पूरे भारत मे हवाई जहाज से बिखेर कर हरिक्रान्ति के नाम पर बडे बडे कांटो वाले वाले वृक्ष उगा दिये है जो किसी भी अलावा वनस्पति को नही उगने देते और अपनी ही गरिमा को कायम रखने के लिये जमीन से उष्ण्ता को तो खींचते ही है साथ मे जो भी पौधो के पोषक तत्व होते है उन्हे भी खींच कर अपनी लकडी को बनाने मे काम आते है यह भी मेरे ख्याल से अंग्रेजो का एक ख्याल होना चाहिये था कि जब भारत मे कोई जडी बूटी ही नही मिलेगी तो भारत मे लोग अपने आप ही अंग्रेजी दवाइयों के घेरे मे आजायेंगे और उनके बनाये हुये अस्पतालों जाकर भर्ती होंगे फ़िर वे जैसा चाहेंगे वैसा व्यवहार मरीजो के साथ करेंगे उनके अन्दर उन तत्वो को इंजेक्सन और दवाइयों से भर दिया जायेगा जो शरीर मे जाकर अंग्रेजी व्यवहार को करने के लिये अपने आप जिम्मेदार हो जायेंगे।
भाषा से तो उन्होने दूर ही कर दिया है साथ ही आदमी के अन्दर इतना बडा भेद भाव पैदा कर दिया है कि वह अपने अलावा और किसी को जानता ही नही है अगर गांव का आदमी किसी शहरी औरत से शादी कर लेता है तो उसका गांव का व्यवहार खत्म होता ही है वह शहर के माहौल मे भी अपने को नही ढाल पाता है वह कभी तो गांव के ख्याल अपने मन मे लाता रहता है कभी वह अपने ख्यालो मे शहर की चमक दमक मे लेकर चलने लगता है उसकी औलाद ऐसी होती है कि वह अपने पिता के गांव की सभ्यता को तो बेहूदा मानने लगती और अपने को आगे बढाने के लिये वह गांव के प्रति भी दुर्भावना रखने लगती है। जो सब्जी कढाही मे बनायी गयी थी वह बनी तो चूल्हे पर थी लेकिन उसे लाकर जब सजे सजाये कमरे मे बनाकर रखा जाता है तो वह शहरी सब्जी बन जाती है और ऊपर से जो हरा धनिया आदि डालकर उसे छींट का कलर दिया जाता है तो उसकी बात ही कुछ और होती है वह सजावटी सब्जी के रूप मे देखी जाती है और जिसे देखो वही कहने लगता है भाई यह तो बहुत अच्छी और देखने मे सुन्दर लगती है। अक्सर कहा जाता है कि भोजन और भजन को कभी अकेले मे करने से मजा नही आता है कीर्तन को तो साथ साथ करने मे बहुत ही अच्छा लगता है भोजन को भी साथ साथ मे करना बहुत अच्छा लगता है अगर उसी भोजन को अपने पडौस के लोगों के साथ किया जाये और भी बात होती है इस बात से इस बात का तो मजा ही होता है कि बोलने चालने मे और व्यवहार आदि मे दुख सुख मे किसी भी कारण के बनने से पडौसी भाग कर पहले आजाते है कई लोग अपने पडौसी से ही लडाई झगडा कर लेते है उन्हे लगता है कि उनके सामने पडौसी की कोई औकात नही है वह भूल जाता है कि जिस कार्य के लिये वह शहर मे आया है उसी कार्य से उसके पडौसी का भी आना हुआ है।
अपने ही घर मे पडौसी के साथ बैठकर खाना खाया जाये तो बहुत ही अच्छा लगता है कई जगह पर जाने के बाद पता चला कि जिसके घर गये थे उसके घर तो आने जाने के वक्त ही खाना खा पाये वरना पडौसी ही अपने यहां निमंत्रण देकर चले जाते और विभिन्न प्रकार का भोजन करने के बाद पता चलता कि कैसी सामजस्यता बैठाकर लोग आपस मे रहते है उन्हे इस बात का पता ही नही होता है कि वे एक परिवार के है या अलग अलग परिवार के है इसके साथ ही मजा तब और अधिक आता है जब पडौसी अलग अलग प्रांत के हो या अलग अलग सभ्यता से जुडे हो कारण उनके यहां बनने वाला भोजन बिलकुल ही अलग होता है और वह भोजन कुछ मानसिक इच्छाओ को भी पूरा करता है जैसे रोटी खाने वाला व्यक्ति अगर दक्षिण के पडौसी के यहां निमंत्रण मे जाता है तो उसे दौसा और सांभर का स्वाद पता लगता है या महाराष्ट्र के पडौसी के यहां जाने पर उसे भाखरे खाने को मिलते है गुजराती के यहां जाने पर खम्मण ढोकले भी खाने को मिलते है,मालवा के पडौसी के यहां जाने पर हींग के बघार वाली सब्जी भी खाने को मिलती है। इसके अलावा भी कई प्रकार के खाने अलग से बनाये जाते है उसके लिये एक दूसरे पडौसी के प्रति सद्भावना भी रखते है कि आया हुआ मेहमान कभी यह न कह बैठे कि वे जिसके घर गये थे उनके पडौसी कुछ भी ख्याल रखना नही जानते थे या उनके यहां भोजन बनाने मे कोताही की जाती थी या लोभी थे खिलाने मे भेद रखते थे,अगर उनके घर के आसपास कोई मेहमान आजाता तो उनके घर के बच्चे भी यही मानने लगते थे कि अब तो एक दिन उनके घर पर भी गहमागहमी हो जायेगी और वे भी उस गहमागहमी मे अपने को उन पकवानो का स्वाद लेने से नही चूकेंगे।
मेहमान जब घर मे आते है तो बच्चो से उनकी जानपहिचान होती है बच्चे अपने अपने स्वभाव के अनुसार उन मेहमानो से अपनी अपनी भावना को व्यक्त करते है कोई अच्छी कविता को सुनाना जानता है तो कोई चुटकुले ही सुनाना जानता है कोई केवल हंसना ही जानता है तो कोई अपनी व्यथा को बताने मे ही अपनी सीमा को संकुचित रखता है। कहावत भी सही है कि जब किसी के घर की हालत को जानना हो तो बच्चे उस घर की हालत को बहुत ही ठीक तरह से उसी प्रकार से बता देते है जैसे किसी लडकी के लिये लडका देखना है तो उसके पडौस के नाई धोबी और पंडित से घर का पूरा राज पता किया जा सकता है जैसे नाई के यहां घर के पुरुष दाढी बाल आदि बनवाने जाते है उस समय सब अपने अपने बारे मे कोई न कोई बात करता रहता है नाई को सभी के घरो की हालत का पता चलता है कोई नाई से सुबह सुबह ही झगडा कर लेता है कि जरा सी मूंछ छांटने का दस रुपया ले लिया तो कोई दस की जगह पर पन्द्रह देकर इसलिये चला जाता है कि नाई का काम तो लोगो की सेवा ही करना है और कोई जानना भी चाहेगा तो नाई बढचढ कर उस दस रुपये देने वाले की और पन्द्रह रुपये देने वाले की हालत को कैसे बतायेगा यह तो बाद मे ही पता चलेगा इसके अलावा हर घर से प्रेस होने के लिये धुलने के लिये और कपडे की तीमारदारी करने के लिये कपडा धोबी की दुकान पर भी जाता है जब धोबी को यह भी पता होता है कि एक कपडा कितने दिनो से उसके पास धुलने के लिये आ रहा है अगर देर से आता है तो उसे पता होता है कि धुलने के लिये पैसे नही है और जल्दी जल्दी आता है तो उसे पता होता है कि कपडे बनवाने के लिये पैसे नही है इसलिये एक ही कपडा जल्दी जल्दी प्रेस होने के लिये या धुलने के लिये आता है इसके अलावा भी कपडे की क्वालिटी कैसी है इस बात का पता भी धोबी को ही होता है अलावा लोगो को इस बात की जानकारी नही होती है।
जब मुहल्ले मे रहा जायेगा तो किसी न किसी बात पर झगडा भी होगा और जब झगडा होगा तो उसे निबटाने के लिये समझदार लोग अपनी अपनी तरह से समझायस भी करेंगे,जैसे रात को काम से लौटने के बाद पास की शराब की दुकान पर दो पडौसी मिल जाते है और पहले तो हाफ़ हाफ़ की कहकर एक दूसरे के पैसो की पूर्ति करते है किसी एकान्त स्थान पर कोई नही है को देखकर उस पौवे को पी लिया जाता है मूंगफ़ली आदि मिल गयी तो ठीक है नही मिली तो कोई बात नही,शुरुर के आने से अपनी अपनी बात को कहना चालू कर देते है और जब बाते की जाती है तो मुहल्ले के प्रति किसी न किसी बात से आपसी सामजस्य भी बिगड जाता है और जैसे ही सामजस्य बिगडता है लोग आपस मे गाली गलौज या मारपीट भी कर लेते है जो अन्न एक ने खाया है वही अन्न दूसरे ने भी खाया है कम कोई किसी से नही पडता है बात दो परिवारो के आपसी भिडने तक आजाती है रात को हो सकता है कि लाठी डंडे की जगह पर क्रिकेट खेलने वाले बल्ले ही काम आ रहे हो,लेकिन यह भी पता नही होता है कि किसके लग रही है और कौन जख्मी हो रहा होता है वहां तो आन बान शान तीनो ही दिखाई देती है अगर देखने के लिये कोई पडौसी आते है तो ठीक है अन्यथा नगर निगम की लाइट वैसे दिन मे चलती रहे लेकिन रात को जरूर बन्द हो जाती है उस लाइट मे किसी का चेहरा तो दिखाई नही देता है,सुबह को जब नशा दूर होता है तो एक दूसरे की गल्ती को मानते हुये एक दूसरे के घर पर भी जाना पडता है फ़िर घर की औरते ही रह जाती है कारण आदमी तो काम पर चले जाते है और घर की औरतो को लडको को समझाना पडता है कि कोई बात नही जो हुआ उसे भूल जाओ एक छोटा बन जाता है या तो हाथ जोड लेता है या यह कहकर कि तू छोटा था वह उम्र मे बडा था पीट लिया कोई बात नही अब शैतानी नही करना और न ही शराब पीकर लडाई करना। अक्सर देखा जाता है कि कहीं पर भी लडाई झगडा हो लेकिन औरते और बच्चे अपनी अपनी तरह से देखने की कोशिश करते है इसका भी एक कारण तो समझ मे आया कि उन्हे या तो एक दूसरे की ताकत को देखने मे मजा आता है वैसे टीवी शो मे उन्हे पता होता है कि लडाई कैसे होती है लेकिन वह लडाई जब हकीकत की हो तो और ही बात है बच्चे लडाई के बाद यह कहते देखे जाते है कि कैसे हाथ घुमा घुमाकर बैट को चला रहा था उसकी खोपडी मे बैट का पूरा हिस्सा नही पडा था नही तो राम नाम सत्य हो जाती। यह बात केवल आपसी समझौते से दूर हो जाती है अन्यथा अन्य स्थानो पर तो जरा सी तू तू मै मै मे पुलिस का सौ नम्बर घुमा दिया जाता है पुलिस आती है दोनो पक्षो से थोडा बहुत लेकर राजीनामा करवा दिया जाता है।