धन की चाहत रखने वालो के लिये घर धर्मशाला बन जाता है और धर्म की चाहत रखने वालो के लिये घर मन्दिर बन जाता है। उत्तर मुखी दक्षिण मुखी घर धन को ग्रहण करते है और दक्षिण मुखी घर धन को उगलते है। इसके साथ ही पूर्व मुखी घर धर्म को प्रदान करते है और पश्चिम मुखी घर धर्म को ग्रहण करते है.यह बात घर को धर्मशाला यानी कोई भी आये जाये के लिये मान्य होजाती है। लेकिन जो लोग घर को मन्दिर बनाने की कोशिश मे होते है उनके लिये ईशान मुखी घर मे धर्म को ग्रहण करता है और नैतृत्य मुख्यी घर धर्म को छोड कर अधर्म को ग्रहण करने के लिये देखा जाता है। इस प्रकार के घरो मे भी जब बनावट का रूप बिगड जाता है तो घर की दशा भी विपरीत फ़ल प्रदान करने लगती है। और जब विपरीत दिशा का घर भी सही रूप मे बन जाता है तो बजाय उल्टे फ़ल के सही फ़ल प्रदान करने लगता है। जो धन को बचाना चाहते है वह खर्च नही कर सकते है और जो धन को खर्च करना जानते है वह कभी बचत नही कर सकते है। जो कमाना जानते है वह खर्च करना नही जानते है और जो खर्च करना जानते है वह कमाना नही जानते है,जो कमाना और खर्च करना जानते है वही जीवन मे तरक्की कर जाते है।
घर को मन्दिर समझने वाले लोग इंसानी व्यवहार को कमा जाते है और घर को धर्मशाला समझने वाले लोग व्यवहार और व्यापार को कमा जाते है,व्यवहार भी जस का तस होता है,जो किया है उसके बदले मे ही उतना ही मिलेगा व्यापार जितना किया है उतना ही लाभ या हानि देगा। लेकिन घर को मन्दिर बनाने वाले भौतिकता मे सुखी भले ही न रहे लेकिन इंसानी कारणो से सुखी रहते है। घर को धर्मशाला समझने वाले लोग अस्पतालो मे जाते है और मन्दिर समझने वाले लोग तीर्थ स्थानो और धर्म स्थानो मे जाते है। घर को धर्मशाला समझने वाले लोग कोर्ट केश और अदालती कारणो मे इंसानी न्याय के प्रति आशा रखते है और घर को मन्दिर समझने वाले लोग भगवान के प्रति समर्पित होकर अपने प्रति न्याय की आशा भगवान से रखते है। घर को धर्मशाला समझने वाले लोग वकीलो को खर्चा देकर या पुलिस वालो को खर्चा देकर अपनी दुखो वाली स्थिति से निपटने का काम करते है और घर को मन्दिर समझने वाले लोग धर्म स्थानो के पुजारियों मौलवियों और पादरियों को अपनी गुहार देकर भगवान के दरबार मे दुखो से निपटने की क्रिया को करते है। इसी प्रकार से घर को मन्दिर समझने वाले लोग अपने घर के बडे बूढो और मान्य सदस्यों की इज्जत करते है घर को धर्मशाला समझने वाले लोग जो अधिक धनी होता है जिसके अधिक ठाटबाट होते है उसकी इज्जत को करना जानते है। घर को मन्दिर समझने वाले मिल बैठ कर भोजन करते है और समय से अपने घर मे आते है,लेकिन घर को धर्मशाला समझने वाले लोग मनचाहे समय पर घर मे आते है मन चाहे स्थान पर भोजन करते है उनका अधिकतर भोजन बाहर के होटलो मे और दोस्तो के घर पर ही होता है। घर को मन्दिर समझने वाले लोग अपनी पत्नी पति आदि के लिये समर्पित होते है जबकि घर को धर्मशाला समझने वाले जब तक स्वार्थ है अथवा जब तक शारीरिक और धन की चाहत पूरी होती रहती है पति पत्नी को जीवन साथी मानते है और जैसे ही यह सब समाप्त हुआ दूसरा उपाय सोचने लगते है। घर को मन्दिर समझने वाले लोग जीव हत्या से डरते है और सभी जीवो पर दया करते है लेकिन घर को धर्मशाला समझने वाले लोग नानवेज भोजन और शराब पार्टियां आदि घर मे करने लगते है।
घर को धर्मशाला समझने वाले घर को धन की जरूरत मे बेच भी सकते है और घर बनाकर उनका व्यापार भी कर सकते है लेकिन घर को मन्दिर समझने वाले लोग अपने रहने वाले स्थान को अपनी मौत तक सम्भाल कर रखते है अपनी बाप दादा की जायदाद को सम्भाल कर रखते है। जो घर को मन्दिर समझते है उनके बच्चे खून से सम्बन्धित रिस्तेदारी मे विश्वास करते है जो घर को धर्मशाला समझते है उनके बच्चे मन के माफ़िक रिस्तेदारी करते भी है और समय आने पर बदलने से भी नही चूकते है। घर को मन्दिर समझने वालो लोगों की लक्ष्मी दासी होती है जबकि घर को धर्मशाला समझने वाले लक्ष्मी के दास होते है। इन बातो को समझ कर आप ही खुद सोच लीजिये कि आपने घर बनाया है या धर्मशाला।
घर को मन्दिर समझने वाले लोग इंसानी व्यवहार को कमा जाते है और घर को धर्मशाला समझने वाले लोग व्यवहार और व्यापार को कमा जाते है,व्यवहार भी जस का तस होता है,जो किया है उसके बदले मे ही उतना ही मिलेगा व्यापार जितना किया है उतना ही लाभ या हानि देगा। लेकिन घर को मन्दिर बनाने वाले भौतिकता मे सुखी भले ही न रहे लेकिन इंसानी कारणो से सुखी रहते है। घर को धर्मशाला समझने वाले लोग अस्पतालो मे जाते है और मन्दिर समझने वाले लोग तीर्थ स्थानो और धर्म स्थानो मे जाते है। घर को धर्मशाला समझने वाले लोग कोर्ट केश और अदालती कारणो मे इंसानी न्याय के प्रति आशा रखते है और घर को मन्दिर समझने वाले लोग भगवान के प्रति समर्पित होकर अपने प्रति न्याय की आशा भगवान से रखते है। घर को धर्मशाला समझने वाले लोग वकीलो को खर्चा देकर या पुलिस वालो को खर्चा देकर अपनी दुखो वाली स्थिति से निपटने का काम करते है और घर को मन्दिर समझने वाले लोग धर्म स्थानो के पुजारियों मौलवियों और पादरियों को अपनी गुहार देकर भगवान के दरबार मे दुखो से निपटने की क्रिया को करते है। इसी प्रकार से घर को मन्दिर समझने वाले लोग अपने घर के बडे बूढो और मान्य सदस्यों की इज्जत करते है घर को धर्मशाला समझने वाले लोग जो अधिक धनी होता है जिसके अधिक ठाटबाट होते है उसकी इज्जत को करना जानते है। घर को मन्दिर समझने वाले मिल बैठ कर भोजन करते है और समय से अपने घर मे आते है,लेकिन घर को धर्मशाला समझने वाले लोग मनचाहे समय पर घर मे आते है मन चाहे स्थान पर भोजन करते है उनका अधिकतर भोजन बाहर के होटलो मे और दोस्तो के घर पर ही होता है। घर को मन्दिर समझने वाले लोग अपनी पत्नी पति आदि के लिये समर्पित होते है जबकि घर को धर्मशाला समझने वाले जब तक स्वार्थ है अथवा जब तक शारीरिक और धन की चाहत पूरी होती रहती है पति पत्नी को जीवन साथी मानते है और जैसे ही यह सब समाप्त हुआ दूसरा उपाय सोचने लगते है। घर को मन्दिर समझने वाले लोग जीव हत्या से डरते है और सभी जीवो पर दया करते है लेकिन घर को धर्मशाला समझने वाले लोग नानवेज भोजन और शराब पार्टियां आदि घर मे करने लगते है।
घर को धर्मशाला समझने वाले घर को धन की जरूरत मे बेच भी सकते है और घर बनाकर उनका व्यापार भी कर सकते है लेकिन घर को मन्दिर समझने वाले लोग अपने रहने वाले स्थान को अपनी मौत तक सम्भाल कर रखते है अपनी बाप दादा की जायदाद को सम्भाल कर रखते है। जो घर को मन्दिर समझते है उनके बच्चे खून से सम्बन्धित रिस्तेदारी मे विश्वास करते है जो घर को धर्मशाला समझते है उनके बच्चे मन के माफ़िक रिस्तेदारी करते भी है और समय आने पर बदलने से भी नही चूकते है। घर को मन्दिर समझने वालो लोगों की लक्ष्मी दासी होती है जबकि घर को धर्मशाला समझने वाले लक्ष्मी के दास होते है। इन बातो को समझ कर आप ही खुद सोच लीजिये कि आपने घर बनाया है या धर्मशाला।
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