श्रीयंत्र का स्वरूप

 अति प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में श्रीविद्या की उपासना प्रचलित है। श्रीमत शंकराचार्य के परमगुरु गोडपादस्वामी स्वयं शंकराचार्य तथा तदनुवर्ती सुरेश्वर पद्यमपाद विद्यारण्य स्वामी प्रभृति अनेकों वेदान्ती आचार्य श्रीविद्या के उपासक थे। मीमांसकों में आचार्यप्रवर खण्डदेव के शिष्य शम्भु भट्ट भास्करराय प्रभृति भी इस विद्या के उपासक थे। महाप्रभु चैतन्य देव के द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायगत सिद्धान्त के मूल में भी इसी साधना का प्रभाव स्पष्टत: अथवा किसी किसी स्थान में अर्द्धप्रछन्न भाव में परिलक्षित होता है। महाप्रभु श्री चैतन्य के नित्यसंगी नित्यानन्द महाप्रभु श्रीविद्या के उपासक थे। सह सर्वादिसम्मत है। शैवाचार्यगण में अभिनवगुप्त प्रभृति शिवोपासना के साथ साथ श्रीविद्या की भी उपासना करते थे,ऐसे प्रसिद्धि है। आज भी भारवर्ष में अनेकों स्थानों में यह सम्प्रदायक्रम म्लानभाव में होने पर भी अविच्छिन्नरूप में चला आ रहा है। दस महाविद्या में षोडशी नाम्नी तृतीया महाविद्या ही श्रीविद्या का स्वरूप है। सुन्दरी ललिता त्रिपुरासुन्दरी प्रभृति इसी के अपर नाम है। इस उपासना के तत्व को समझने के लिये सर्वप्रथम देवी के स्वरूपभूत चक्र वा यन्त्र को अच्छी तरह से समझना होगा। पांच शक्ति चक्र रूप अधोमुख त्रिकोण और चार शिवचक्रमय ऊर्ध्वमुख त्रिकोण के एकत्र सम्मिलित होने से श्रीचक्र निर्मित होता है। इस चक्र के तत्व और लेखन प्रकार को साधारणत: बहुतेरे मनुष्य नही जानते और इसे अच्छी तरह से समझे बिना शक्तिसाधना की एक दिशा का बिलकुल ही ज्ञान नही होता।
नवचक्र
  1. बिन्दु तथा महाबिन्दु :- मूलकारण महात्रिपुर सुन्दरी कामेश्वर कामेश्वरी सामरस्य जगत की मूल योनि तथा शिवभाग.
  2. त्रिकोण :- आद्या विमर्शशक्ति या जीव भाव शब्द अर्थरूपी सृष्ति की कारणात्मिका पराशक्ति अहंभाव एवं जीव तत्व
  3. अष्टार - पुर्यष्टक कारण शरीर लिंगशरीर का कारण
  4. अन्तर्दशार- इन्द्रियवासना लिंग शरीर.
  5. बहिर्दशार- तन्मात्रा तथा पंचभूत (इन्द्रिय विषय)
  6. चतुर्दशार- जाग्रत स्थूल शरीर
  7. अष्टदल- अष्टारवासना
  8. षोडसदल- दशारद्वय वासना.
  9. भूपुर- बिन्दु त्रिकोण अष्टदल षोडसदल इन चारों की समष्टि प्रमातृपुर और प्रमाणपुर का पशुपदीय प्रकृति मन बुद्धि अहंकार और शिवपदीय शुद्ध विद्यादितत्वचतुष्टय का सामरस्य।
नवचक्रों के देवता और नाम के संकेत
  1. सर्वानन्दमय  -   महात्रुपुरसुन्दरी
  2. सर्वसिद्धिप्रद - त्रिपुराम्बा
  3. सर्वरोगहर -त्रिपुरसिद्धा
  4. सर्वरक्षाकर- त्रिपुरमालिनी
  5. सर्वार्थसाधक - त्रिपुरश्री
  6. सर्वसौभाग्यदायक - त्रिपुरवासिनी
  7. सर्वसंक्षोभणकारक- त्रिपुर सुन्दरी
  8. सर्वाशापरिपूरक - त्रिपुरेशी
  9. त्रैलोक्यमोहन - त्रिपुरा.
यही नवावरण पूजा के नव देवता है,मतान्तर से इन्हे प्रकटा गुप्ता गुप्ततरा परा सम्प्रदाया कुलकौला निगर्भा अतिरहस्या परापरातिरहस्या इत्यादि नाम से भी पुकारते हैं।
श्रीयंत्र का शब्दार्थ
श्रीयंत्र का सरल अर्थ है - श्री का यंत्र अर्थात गृह। नियमनार्थक यम धातु से बना यंत्र शब्द गृह अर्थ को ही प्रकट करता है। क्योंकि गृह में ही सब वस्तुओं का नियंत्रण होता है। श्रीविद्या को ढूंढने के लिये उसके गृह श्रीयंत्र की ही शरण लेनी होगी। आगे श्री अर्था श्रीविद्या के परिचय से ज्ञात होगा कि वह उपास्य और उपेय दोनों है। उपेय वस्तु को उसके अनुकूल स्था ही अन्वेषण करने से सिद्धि होती है,अन्यथा मनुष्य उपहासास्पद बनता है। आदि कवि श्रीवालमीकिनी ने श्रीसीताजी के अन्वेषण में तत्पर श्रीहनुमानजी के द्वारा कहलाया है- "यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते",अर्थात जिस प्राणी की जो योनि होती है वह उसी में ढूंढा जा सकता है। भगवान शंकराचार्य ने भी यंत्र का उद्धार देते हुये "तव शरणकोणा: परिणत:" इस वाक्य में यंत्र के अर्थ में गृहवाचक शरण पद का प्रयोग किया है। इस न्याय से उत्तरभारत एवं दक्षिण भारत में स्थित श्रीनगर नामक स्थानो की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि इन नगरों में श्रीविद्या के उपासक अधिक संख्या में मिलते थे,और अब भी थोडे बहुत पाये जाते है। अस्तु यह विश्व ही श्रीविद्या का गृह है। यहां विश्व शब्द से पिण्डाण्ड एवं ब्रह्मांड दोनो का ग्रहण है। मायाण्ड प्रकृत्यण्ड भी स्थूल सूक्ष्म रूप से इन्ही के अन्तर्गत आ जाता है,यह आगे चलकर ततद्विशेष यंत्रों के विवरण से विशेषतया स्पष्ट हो जायेगा।
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