जगत को रचाय के,जीव को बनाय के,भूख से व्याकुल करि महि भटकायो है ।
जल थल पूर्ण करि गिरि पहाड चूर्ण करि,परत दर परत से भूलोक चटकायो है॥
काहू को बल दियो बल से कोई मल दियो काहू को बल विहीन करि काल गटकायो है।
काहू को बुद्धि दे बुद्धि से अवरुद्ध कर काहू को माया जाल के बीच मे लटकायो है॥
परमात्मा का रूप मनुष्य जीव जन्तु और जगत की जिन्दा मिथ्या के समिश्रित रूप मे समाहित है। एकोअहम के सिद्धान्त के अनुसार सभी एक है परन्तु कर्मप्रथकता सिद्धान्त के अनुसार सभी एक दूसरे से अलग अलग है। जो भौतिक रूप मे है वह कभी नही था और आगे वह नही रहेगा। जो है वह नही है और जो नही है वह है। इस है और नही है के फ़ेर का नाम ही जीवन है। जिस प्रकार से भौतिक वस्तु के क्षरण का एक निश्चित समय होता है उसी प्रकार से इस जीवित जगत का भी एक निश्चित समय है। एक एक कण बनता है फ़िर उसका क्षरण होता है वह क्षरण एक निश्चित समय पर पूरा होता है फ़िर उस क्षरण का नया रूप बनता है और उस नये रूप का क्षरण होने लगता है। यह क्रिया कालान्तर से चली आ रही है और चलती रहेगी।
सवाल पैदा होता है कि आखिर हम कौन है ? भौतिक रूप से उत्तर दिया जाये तो हम वही है जो हमे बताया जाता है,पिता अपना पुत्र कहता है माता कहती है हमने जन्म दिया है भाई बडे या छोटे भैया के रूप मे पुकारता है बहिन कहती है कि मेरा अच्छा भैया है। चाचा के लिये भतीजा है मामा के लिये भांजे है,पति के लिये पत्नी है और पत्नी के लिये पति है,पुत्र के लिये पिता है,पौत्र के लिये दादा है,जिन्दा के लिये श्रीमान है और मरने के बाद स्वर्गीय है। जो नाम दिया गया है वह जन्म के बाद दिया गया है,जो काम किया है वह करने के लिये बाध्य किया गया,बाधय्ता चाहे पेट भरने की हो,बाध्यता चाहे शरीर की आग को मिटाने की हो या बाध्यता चाहे मन की आग को शांत करने की हो,जो भी किया है वह अपने अनुसार तो किया ही नही है,जन्म से लेकर मौत तक दूसरो के लिये ही काम किया है अपने लिये तो कभी किया ही नही है ! अपने लिये अगर किया है तो वह किसी प्रकार से एक दूसरे की कभी कभी की सहायता,चाहे भूखो को भोजन देने से रही हो,बीमार को दवा दिलवाने से रही हो या फ़िर कभी कभी दूसरे की बिना किसी स्व-स्वार्थ के सहायता देने से रही हो,इसके बीच मे भी अगर अहम आ गया,इसे करने से पाप होगा इसे करने से पुण्य होगा तो वह की गयी सहायता ही पाप पुण्य की सीमा मे बंध कर कर्म सिद्धान्त मे बंध गये और मौत के बाद इस जगत में केवल गिनने के लिये रह गये,कुछ काल तक गिने गये और बाद मे वह भी गयी गुजरी आंधी की तरह से गायब हो गये।
अगर हंसते है तो मानसिक प्रफ़ुल्लता से हंसते है रोते है तो मानसिक क्लेश से रोते है जीवित है तो मानसिक मोह से जीते है मरते है तो मानसिक विछोह से मरते है,चोरी करते है तो मानसिक कमजोरी से करते है,मारते है तो मानसिक क्रूरता से मारते है,जिन्दा करते है मानसिक दया से करते है,पालते है तो मोह से पालते है,दुत्कारते है तो मानसिक गंदगी से दुत्कारते है,जो हो रहा है वह मानसिक रूप से ही हो रहा है,दिल से हो रहा है,कर्म से हो रहा है और जो हो रहा है वह भौतिक दिखता है और जो चल रहा है वह गुप्त रूप से चल रहा है न तो हमे पता है और न ही किसी को पता है,कि जो हो रहा है उसका फ़ल क्या प्राप्त होना है।
कीडे को जीवन और भोजन से मोह है,पशु को जीवन और भोजन से मोह है,मनुष्य को जीवन और भोजन से मोह है,भोजन के बाद क्रियायें और उन क्रियाओं से नये जीवन की उत्पत्ति। जीवन के लिये कार्य किये जाते है जीवन के लिये घर बनाये जाते है जीवन के लिये सर्दी गर्मी वर्षा से बचने के उपाय किये जाते है,गर्मी मे रहने के लिये ठंडक का निर्माण किया जाता है,सर्दी से बचने के लिये गर्मी की उत्पत्ति की जाती है बरसात से बचने के लिये सूखी जगह का निर्माण किया जाता है कच्चे को रोकने के लिये पक्का बनाया जाता है और पक्के को हटाने के लिये कच्चे का निर्माण किया जाता है। वायु की कमी को पूरा करने के लिये वायु का निर्माण किया जाता है आग की कमी को पूरा करने के लिये आग का निर्माण किया जाता है पानी की कमी को पूरा करने के लिये पानी की पूर्ति की जाती है। बीमार होने पर दवाई का निर्माण करके स्वस्थ किया जाता है,बीमार होने के लिये अखाद्य वस्तुओं का सेवन किया जाता है। अगर हम दवाई का निर्माण करते है तो हम फ़ार्मासिस्ट कहलाते है दवाई देने की कला को जानते है तो डाक्टर कहे जाते है और दवाई को हम खाते है तो मरीज के रूप मे बन जाते है। सर्दी के स्थान मे गर्मी से रहने पर गर्मी के स्थान पर सर्दी रहने पर बरसात के स्थान पर सूखे मे रहने पर हम अमीर कहे जाते है,वातावरण के अनुसार उसी के अनुसार रहने पर हम गरीब कहे जाते है।
चालाकी से अपना कार्य बनाने पर हम अपने को चालाक कहते है किसी की चालाकी मे आकर अपने को लुटवाने के कारण हम बेवकूफ़ कहे जाते है। दोनो भावो के रहने पर हम कभी चालाक और कभी बेवकूफ़ कहे जाते है। शरीर को सजाने और शरीर का ख्याल रखने पर हम खूबशूरत बन जाते है और शरीर का ध्यान नही रखने पर हम बदशूरत बन जाते है। साफ़ सफ़ाई रखने पर हम भले कहे जाते है और गंदगी रखने पर हम बुरे कहे जाते है,दोनो के रहने पर हम भले और बुरे दोनो प्रकार के कहे जाते है। किसी भी काम को लगातार करने पर हम सिद्धहस्त बन जाते है किसी काम को नही करने पर हम अज्ञानी रहते है। अपने कुल के अनुसार काम करने पर हम कुलीन होते है अपने कुल से दूर जाकर काम करने पर हम आवारा बन जाते है। अपने कुल के अनुसार अपने धर्म के अनुसार काम करने पर हमे अपने कुल और धर्म का फ़ल प्राप्त होता है और लोगो की नजर मे हम सही माने जाते है और लोग हमसे संतुष्ट हो जाते है उन्हे शांति मिलती है और इसी शांति को मोक्ष की परिभाषा से पूर्ण किया गया है।
अपने खुद के काम त्याग कर दूसरो के काम करने पर हम नेता कहे जाते है,अपनी भावनाओ को छुपाकर दूसरो की भावनाओ को प्रकट करने पर हम अभिनेता बन जाते है। वीरता से किये गये कामो के लिये हम पशु रूप की संज्ञा शेर की उपाधि प्राप्त करते है और चुपचाप प्रताणना को सहन करने के कारण भी हम पशु रूप की संज्ञा गधे से सुसज्जित किये जाते है। एक जिन्दा जीव को खाने वाला होता है तो दूसरा घास खाने वाला होता है। भावना में डर की उपाधि दी जाती है जिसे डर लगे वह कायर और जो डरे नही वह वीर,कायर मारा जाता है वीर मारता है,क्रिया मरने और मारने की ही है। माता पुत्र को पैदा करने के बाद अपने जीवन को पुत्र के लिये समर्पित कर देती है और उसके शरीर का क्षरण होने लगता है वह पुत्र को पालने की क्रिया मे अपने शरीर को बरबाद कर लेती है। पुत्र अपने शरीर को विवाह के बाद पत्नी और परिवार को चलाने के लिये अपने शरीर को बरबाद कर लेता है पिता का मोह पुत्र से और पुत्र का मोह अपने पुत्र से इस प्रकार के मोह का कारण ही शरीर क्षरण का सिद्धान्त बनता है। साधु गुफ़ा मे जाकर तपस्या करता है अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिये वह गुफ़ा का प्रयोग करता है,यानी चिन्ता शरीर की ही होती है। तपस्या का उद्देश्य खुद के जीवन को भगवत भाव मे लगाकर दूसरे की सहायता करने से होता है लेकिन अहम मे केवल एक ही बात मिलती है कि वह भी क्रिया को कर रहा है और उस क्रिया का कारण भी किसी न किसी प्रकार के क्षरण के लिये ही होता है। यानी हम एक दूसरे के क्षरण को पूर्ण करने के लिये जी रहे है मर रहे है सो रहे है जाग रहे है बैठे है भाग रहे है।
हवा हमारे अन्दर है तो हम हवा है आग हमारे अन्दर है तो हम आग है जल हमारे अन्दर है तो हम जल है आकाश हमारे अन्दर है तो हम आकाश है धरती हमारे अन्दर है तो हम धरती है। हम पुरुष रूप मे पुरुष है स्त्री रूप मे हम स्त्री है पशु रूप मे हम पशु है कीडे के रूप मे हम कीडे है। इन्सान के रूप मे हम इन्सान है जानवर के रूप मे हम जानवर है। अपने को जगा लिया तो हम बुद्धिमान है सोते रहे तो हम बेवकूफ़ है,जितनी क्रिया हमने जाग्रत अवस्था मे कर ली है वह हमारी बडी शिक्षा है और जितनी क्रिया हम नही कर पाये उतने ही हम अशिक्षित है। शिक्षित शिक्षा देने का काम कर रहा है और अशिक्षित शिक्षा को लेने का काम कर रहा है बीच का मूल रूप शिक्षा ही रही। कार्य के लिये कोई धन खर्च कर रहा है कोई कार्य करने के बाद धन को ले रहा है कार्य और धन के लिये एक के लिये कार्य गौढ रहा और दूसरे के लिये धन गौढ रहा लेकिन दोनो के लिये जो मूल रूप रहा वह जीवन यापन ही रहा,एक कार्य करवाने के बाद जीवन जीना चाहता है और एक कार्य को करने के बाद अपने जीवन को जीना चाहता है,मूल रूप जीवन ही रहा। जीवन का रूप परिवर्तन रहा और परिवर्तन का कारण ही जीवन है।
हम परिवर्तन है,परिवर्तन से हम आये और परिवर्तन हम कर रहे है,हमारा परिवर्तन भी आगे का परिवर्तन करता रहेगा।
जल थल पूर्ण करि गिरि पहाड चूर्ण करि,परत दर परत से भूलोक चटकायो है॥
काहू को बल दियो बल से कोई मल दियो काहू को बल विहीन करि काल गटकायो है।
काहू को बुद्धि दे बुद्धि से अवरुद्ध कर काहू को माया जाल के बीच मे लटकायो है॥
परमात्मा का रूप मनुष्य जीव जन्तु और जगत की जिन्दा मिथ्या के समिश्रित रूप मे समाहित है। एकोअहम के सिद्धान्त के अनुसार सभी एक है परन्तु कर्मप्रथकता सिद्धान्त के अनुसार सभी एक दूसरे से अलग अलग है। जो भौतिक रूप मे है वह कभी नही था और आगे वह नही रहेगा। जो है वह नही है और जो नही है वह है। इस है और नही है के फ़ेर का नाम ही जीवन है। जिस प्रकार से भौतिक वस्तु के क्षरण का एक निश्चित समय होता है उसी प्रकार से इस जीवित जगत का भी एक निश्चित समय है। एक एक कण बनता है फ़िर उसका क्षरण होता है वह क्षरण एक निश्चित समय पर पूरा होता है फ़िर उस क्षरण का नया रूप बनता है और उस नये रूप का क्षरण होने लगता है। यह क्रिया कालान्तर से चली आ रही है और चलती रहेगी।
सवाल पैदा होता है कि आखिर हम कौन है ? भौतिक रूप से उत्तर दिया जाये तो हम वही है जो हमे बताया जाता है,पिता अपना पुत्र कहता है माता कहती है हमने जन्म दिया है भाई बडे या छोटे भैया के रूप मे पुकारता है बहिन कहती है कि मेरा अच्छा भैया है। चाचा के लिये भतीजा है मामा के लिये भांजे है,पति के लिये पत्नी है और पत्नी के लिये पति है,पुत्र के लिये पिता है,पौत्र के लिये दादा है,जिन्दा के लिये श्रीमान है और मरने के बाद स्वर्गीय है। जो नाम दिया गया है वह जन्म के बाद दिया गया है,जो काम किया है वह करने के लिये बाध्य किया गया,बाधय्ता चाहे पेट भरने की हो,बाध्यता चाहे शरीर की आग को मिटाने की हो या बाध्यता चाहे मन की आग को शांत करने की हो,जो भी किया है वह अपने अनुसार तो किया ही नही है,जन्म से लेकर मौत तक दूसरो के लिये ही काम किया है अपने लिये तो कभी किया ही नही है ! अपने लिये अगर किया है तो वह किसी प्रकार से एक दूसरे की कभी कभी की सहायता,चाहे भूखो को भोजन देने से रही हो,बीमार को दवा दिलवाने से रही हो या फ़िर कभी कभी दूसरे की बिना किसी स्व-स्वार्थ के सहायता देने से रही हो,इसके बीच मे भी अगर अहम आ गया,इसे करने से पाप होगा इसे करने से पुण्य होगा तो वह की गयी सहायता ही पाप पुण्य की सीमा मे बंध कर कर्म सिद्धान्त मे बंध गये और मौत के बाद इस जगत में केवल गिनने के लिये रह गये,कुछ काल तक गिने गये और बाद मे वह भी गयी गुजरी आंधी की तरह से गायब हो गये।
अगर हंसते है तो मानसिक प्रफ़ुल्लता से हंसते है रोते है तो मानसिक क्लेश से रोते है जीवित है तो मानसिक मोह से जीते है मरते है तो मानसिक विछोह से मरते है,चोरी करते है तो मानसिक कमजोरी से करते है,मारते है तो मानसिक क्रूरता से मारते है,जिन्दा करते है मानसिक दया से करते है,पालते है तो मोह से पालते है,दुत्कारते है तो मानसिक गंदगी से दुत्कारते है,जो हो रहा है वह मानसिक रूप से ही हो रहा है,दिल से हो रहा है,कर्म से हो रहा है और जो हो रहा है वह भौतिक दिखता है और जो चल रहा है वह गुप्त रूप से चल रहा है न तो हमे पता है और न ही किसी को पता है,कि जो हो रहा है उसका फ़ल क्या प्राप्त होना है।
कीडे को जीवन और भोजन से मोह है,पशु को जीवन और भोजन से मोह है,मनुष्य को जीवन और भोजन से मोह है,भोजन के बाद क्रियायें और उन क्रियाओं से नये जीवन की उत्पत्ति। जीवन के लिये कार्य किये जाते है जीवन के लिये घर बनाये जाते है जीवन के लिये सर्दी गर्मी वर्षा से बचने के उपाय किये जाते है,गर्मी मे रहने के लिये ठंडक का निर्माण किया जाता है,सर्दी से बचने के लिये गर्मी की उत्पत्ति की जाती है बरसात से बचने के लिये सूखी जगह का निर्माण किया जाता है कच्चे को रोकने के लिये पक्का बनाया जाता है और पक्के को हटाने के लिये कच्चे का निर्माण किया जाता है। वायु की कमी को पूरा करने के लिये वायु का निर्माण किया जाता है आग की कमी को पूरा करने के लिये आग का निर्माण किया जाता है पानी की कमी को पूरा करने के लिये पानी की पूर्ति की जाती है। बीमार होने पर दवाई का निर्माण करके स्वस्थ किया जाता है,बीमार होने के लिये अखाद्य वस्तुओं का सेवन किया जाता है। अगर हम दवाई का निर्माण करते है तो हम फ़ार्मासिस्ट कहलाते है दवाई देने की कला को जानते है तो डाक्टर कहे जाते है और दवाई को हम खाते है तो मरीज के रूप मे बन जाते है। सर्दी के स्थान मे गर्मी से रहने पर गर्मी के स्थान पर सर्दी रहने पर बरसात के स्थान पर सूखे मे रहने पर हम अमीर कहे जाते है,वातावरण के अनुसार उसी के अनुसार रहने पर हम गरीब कहे जाते है।
चालाकी से अपना कार्य बनाने पर हम अपने को चालाक कहते है किसी की चालाकी मे आकर अपने को लुटवाने के कारण हम बेवकूफ़ कहे जाते है। दोनो भावो के रहने पर हम कभी चालाक और कभी बेवकूफ़ कहे जाते है। शरीर को सजाने और शरीर का ख्याल रखने पर हम खूबशूरत बन जाते है और शरीर का ध्यान नही रखने पर हम बदशूरत बन जाते है। साफ़ सफ़ाई रखने पर हम भले कहे जाते है और गंदगी रखने पर हम बुरे कहे जाते है,दोनो के रहने पर हम भले और बुरे दोनो प्रकार के कहे जाते है। किसी भी काम को लगातार करने पर हम सिद्धहस्त बन जाते है किसी काम को नही करने पर हम अज्ञानी रहते है। अपने कुल के अनुसार काम करने पर हम कुलीन होते है अपने कुल से दूर जाकर काम करने पर हम आवारा बन जाते है। अपने कुल के अनुसार अपने धर्म के अनुसार काम करने पर हमे अपने कुल और धर्म का फ़ल प्राप्त होता है और लोगो की नजर मे हम सही माने जाते है और लोग हमसे संतुष्ट हो जाते है उन्हे शांति मिलती है और इसी शांति को मोक्ष की परिभाषा से पूर्ण किया गया है।
अपने खुद के काम त्याग कर दूसरो के काम करने पर हम नेता कहे जाते है,अपनी भावनाओ को छुपाकर दूसरो की भावनाओ को प्रकट करने पर हम अभिनेता बन जाते है। वीरता से किये गये कामो के लिये हम पशु रूप की संज्ञा शेर की उपाधि प्राप्त करते है और चुपचाप प्रताणना को सहन करने के कारण भी हम पशु रूप की संज्ञा गधे से सुसज्जित किये जाते है। एक जिन्दा जीव को खाने वाला होता है तो दूसरा घास खाने वाला होता है। भावना में डर की उपाधि दी जाती है जिसे डर लगे वह कायर और जो डरे नही वह वीर,कायर मारा जाता है वीर मारता है,क्रिया मरने और मारने की ही है। माता पुत्र को पैदा करने के बाद अपने जीवन को पुत्र के लिये समर्पित कर देती है और उसके शरीर का क्षरण होने लगता है वह पुत्र को पालने की क्रिया मे अपने शरीर को बरबाद कर लेती है। पुत्र अपने शरीर को विवाह के बाद पत्नी और परिवार को चलाने के लिये अपने शरीर को बरबाद कर लेता है पिता का मोह पुत्र से और पुत्र का मोह अपने पुत्र से इस प्रकार के मोह का कारण ही शरीर क्षरण का सिद्धान्त बनता है। साधु गुफ़ा मे जाकर तपस्या करता है अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिये वह गुफ़ा का प्रयोग करता है,यानी चिन्ता शरीर की ही होती है। तपस्या का उद्देश्य खुद के जीवन को भगवत भाव मे लगाकर दूसरे की सहायता करने से होता है लेकिन अहम मे केवल एक ही बात मिलती है कि वह भी क्रिया को कर रहा है और उस क्रिया का कारण भी किसी न किसी प्रकार के क्षरण के लिये ही होता है। यानी हम एक दूसरे के क्षरण को पूर्ण करने के लिये जी रहे है मर रहे है सो रहे है जाग रहे है बैठे है भाग रहे है।
हवा हमारे अन्दर है तो हम हवा है आग हमारे अन्दर है तो हम आग है जल हमारे अन्दर है तो हम जल है आकाश हमारे अन्दर है तो हम आकाश है धरती हमारे अन्दर है तो हम धरती है। हम पुरुष रूप मे पुरुष है स्त्री रूप मे हम स्त्री है पशु रूप मे हम पशु है कीडे के रूप मे हम कीडे है। इन्सान के रूप मे हम इन्सान है जानवर के रूप मे हम जानवर है। अपने को जगा लिया तो हम बुद्धिमान है सोते रहे तो हम बेवकूफ़ है,जितनी क्रिया हमने जाग्रत अवस्था मे कर ली है वह हमारी बडी शिक्षा है और जितनी क्रिया हम नही कर पाये उतने ही हम अशिक्षित है। शिक्षित शिक्षा देने का काम कर रहा है और अशिक्षित शिक्षा को लेने का काम कर रहा है बीच का मूल रूप शिक्षा ही रही। कार्य के लिये कोई धन खर्च कर रहा है कोई कार्य करने के बाद धन को ले रहा है कार्य और धन के लिये एक के लिये कार्य गौढ रहा और दूसरे के लिये धन गौढ रहा लेकिन दोनो के लिये जो मूल रूप रहा वह जीवन यापन ही रहा,एक कार्य करवाने के बाद जीवन जीना चाहता है और एक कार्य को करने के बाद अपने जीवन को जीना चाहता है,मूल रूप जीवन ही रहा। जीवन का रूप परिवर्तन रहा और परिवर्तन का कारण ही जीवन है।
हम परिवर्तन है,परिवर्तन से हम आये और परिवर्तन हम कर रहे है,हमारा परिवर्तन भी आगे का परिवर्तन करता रहेगा।