श्रीयंत्र का स्वरूप भाग -2

भैरवमाला तंत्र में लिखाहै -
"चक्रं त्रिपुरसुन्दर्या ब्रह्माण्डाकार्मीश्वरि।" अर्थात हे ईश्वरि ! त्रिपुरसुन्दरी का चक्र ब्रह्माण्डाकार है।

भावनोपनिषद में भी कहा गया है -
"नवचक्रमयो देह:।"
अब संक्षेप में श्री  शब्द के अर्थ का निर्वचन किया जाता है। "श्रयते या सा श्री:" अर्थात जो श्रयण की वही श्री है। श्रयणार्थक धातु सकर्मक है,अत: वह कर्म की अपेक्षा रखता है,आगम अर्था गुरुपदेश तथा प्राचीन परम्परागत व्यवहार के अनुसार श्रीका श्रयण कर्म हरि (ब्रह्मरे) के अतिरिक्त अन्य कोई नही हो सकता है। अत: जो नित्य यह शंका हो सकती है,कि यह ब्रह्म को श्रयण करने वाली वस्तु यति नित्य है,तो द्वेत हो जाता है,और यदि अनित्य है तो घटपटादि की भांति यह भी ब्रह्माश्रित हुयी,फ़िर इसे अलग पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है,इसका उत्तर यह कि जिस प्रकार प्रकाश या उष्णता अग्नि से अभिन्न है,और उसके बिना नही ठहर सकती,उसी प्रकार ब्रह्म से उसकी शक्ति श्री भी अभिन्न है,और उससे कभी अलग नही हो सकती। आगम कहते हैं :-
न शिवेन विना देवी न देव्या च विना शिव:
नान्योरन्तरं किंचिच्चन्द्रचन्द्रिकयोरिव॥
श्री के ही कारण ब्रह्म को अनन्त शक्ति अथवा सृष्टि स्थिति और पालन करने वाला कहते है। श्रीशंकराचार्य कहते है:- शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुं। न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि॥ यह महाशक्ति विश्रमण  अवस्था (प्रलय) में प्रकाशमय ब्रह्मरूप होकर रहती है। इस अवस्था में शक्ति का पृथक विवेक नही रहता। अनावृत आकाशस्थ प्रकाश की भांति यह ब्रह्म में लीन हुयी रहती है,तब इस्का महाबिन्दुरूप या प्रब्रह्म परमात्मरूप से वर्णन करते है। इसी कारण प्रलय काल में अनन्त शक्ति ब्रह्म के अविनाशी होने के कारण सदा वर्तमान रहने पर भी सृष्टि नही होती । क्योंकि ब्रह्म को अनन्त शक्ति देने वाली इस महाशक्ति के उस काल में तल्लीन हो जाने के कारण ब्रह्म अशक्त सा होजाता है। जिस प्रकार दिन में भी निरावरण आकाश में सूर्य का आतप बिना पक्षी मकान छाता आदि के स्वयं प्रकाशित नहीं होता,इसी प्रकार अनन्त शक्ति ब्रह्म के रहते भी इस शक्तियों की भी शक्ति के (जिसे आगम में विमर्श शक्ति भी कहते हैं) सम्मुख हुये बिना उस ब्रह्म में कोई शक्ति नही आ सकती है। क्योंकि वह स्वयं निर्गुण निष्कल निरंजन है। इस अवस्था का आगमिकों ने इस प्रकार वर्णन किया है :-
"आचिन्त्यामिताकारशक्तिस्वरूपा,
                   प्रतिव्यक्तयधिष्ठानसत्तैकमूर्ति:।
गुणातीतनिर्द्वन्द्वबोधेकगम्या,
                 त्वमेका परब्रह्मरूपेण सिद्धा॥"
इस प्रकार की श्री को जानना प्रत्येक मुमुक्ष का कर्तव्य है। कामकलाविलास आगम में लिखा है :-
विदिता येन स मुक्तोभवति महात्रिपुर्सुदरीरूप:।
अत: इस प्रकार की श्रीसुन्दरी के यंत्र (गृह) का ज्ञान प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है। यह श्रीयंत्र रूप श्रीत्रिपुरसुन्दरी का गृह जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तथा प्रमाता प्रमेय प्रमाणरूप से त्रिपुरात्मक तथा सूर्य चन्द्र अग्नि भेद से त्रिखंण्डात्मक कहलाता है।
पुरत्रयंच चक्रस्य सोमसूर्यानलात्मकम।
तथा
त्रिखण्डं मातृत्काचक्रं सोमसूर्यानलात्मकम।
 इस प्रकार श्रीचक्र जैसे विश्वमय है,वैसे शब्द सृष्टि मातृकामय है। इससे यह सिद्ध हुआ कि श्रीयंत्र ब्रह्माण्ड एवं पिण्डाण्ड स्वरूप है। इसमें शब्दार्थ भेद से द्विविधि सृष्टि अर्थ सृष्टि तत्वात्मिका है,और शब्द सृष्टि मातृकारूप है। मातृका के भी स्वर स्पर्श और व्यापक तीन खंड चान्द्र सौर आग्नेय रूप है। यह हुयी ब्रह्माण्ड की बात। पिण्डाण्ड में भी सिर ह्रदय मूलाधारान्त तीन भाग तेजस्त्रयात्मक है,हाथ मध्यमभाग की शाखा है,और पैर अन्त्य भाग की। श्रीचक्र भी :-
चतुर्भि: शिवचक्रैश्च शक्तिचक्रैश्च पंचभि।
शिवशक्त्यात्मकं ज्ञेयं श्रीचक्रं शिवयोर्वपु:॥
के अनुसार पांच शक्ति - त्रिकोण,अष्टार,अन्तर्दशार,बहिर्दशार,और चतुर्दशार ये पांच अधोमुख त्रिकोण शक्तिचक्र है,चार वह्रि (शिव) -बिन्दु अष्टदल षोडशादल भूपुर या चतुरस्त्र ये चार ऊर्ध्वमुख त्रिकोण वह्रि (शिव) चक्र है। से बना हुआ तेजस्त्रयात्मक होने से प्रमातृ प्रमाण प्रमेय रूप से पुरत्रयात्मक है। इनमें बिन्दु त्रिकोण अष्टार और अष्टदल रूप आग्नेय खंड प्रमातृपुर है,दशारद्वय और चतुरस्त्ररूप सौरखंड प्रमाणपुर है,तथा चतुर्द्शार एवं षोडशदलरूप चान्द्रखंड प्रमेयपुर है। इसी प्रकार वामा ज्येष्ठा और रौद्री (इच्छा ज्ञान और क्रिया) रूप से भी वह त्रियात्मक है। नाद बिन्दु और कलारूप से भी त्रिरूप है। इस श्रीयंत्र की शरीरस्थ नव चक्रों के साथ तांत्रिक इस प्रकार एक्य भावना करते है। यद्यपि लिंग शरीर में सुषुम्णा नाडी को आश्रयण किये हुये बत्ती पद्य है,तथापि यहां नव चक्रो के सादृश्य से नव पद्मों का ही उल्लेख किया जाता है। सुषुम्णा के दोनो भागों में ऊर्ध्व एवं अधोमुख दो सहस्त्रचार है,और मध्य में इस प्रकार नव चक्र है-
  1. भ्रूमध्य  आज्ञाचक्र    द्विदल      बिन्दु
  2. लम्बिका   इन्द्रयोनि   अष्टदल   त्रिकोण
  3. कण्ठ   विशुद्धि   षोडशदल  अष्टकोण
  4. ह्रदय   अनाहत  द्वादशदल   अन्तर्दशार
  5. नाभि   मणिपुर   दशदल  बहिर्दशार
  6. वास्ति  स्वाधिष्ठान  षटदल  चतुर्दशार
  7. मूलाधार मूलाधार चतुर्दल अष्टदल
  8. तदधोदेश  कुल षटदल षोडसदल
  9. तदधोदेश  अकुल  सहस्त्रदल भूपुर
ब्रह्मरन्ध्र में स्थित महाबिन्दु सहस्त्रार है,इस प्रकार श्रीचक्र और शरीर चक्र का ऐक्य सम्पादन होता है। इसी प्रकार मातृकाचक्र का भी इन दोनों चक्रों के साथ ऐक्य पाया जाता है। षोडस दल और चतुर्दशार स्वरमय है,दशारद्वय क से लेकर न पर्यन्त बीस वर्णमय है,अष्टार अन्त:स्थ और ऊष्मरूप है,चतुरस्त्र प से लेकर म पर्यन्त वर्णमय है,अष्टदल अकचटतपादि वर्गाष्टकरूप है,बिन्दु क्षकाररूप त्रिकोण मकाररूप और महाविन्दु क्षकार मकार समष्टिरूप है,शरीर चक्र में कण्ठ में स्वर ह्रदय में क से ठ पर्यन्त नाभि में ड से फ़ पर्यन्त स्वाधिष्ठान में ब से ल पर्यन्त मूलाधार में व से स पर्यन्त वर्ण तथा आज्ञाचक्र में ह और क्ष यह दो वर्ण हैं।
श्रीचक्र की रचना दो दो त्रिकोंणो के परस्पर श्लेष से होती है,इस प्रकार इसमें नव त्रिकोण होते है। इस प्रकार की रचना से पिण्डाण्ड के भीतर ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के भीतर पिण्डाण्ड का समावेश सूचित होता है। श्रीयंत्र को सृष्टि स्थिति प्रलयात्मक माना गया है,इसमें विन्दुचक्र शिव की मूल प्रकृति से बना होने के कारण प्रकृतिस्वरूप है। शेष आठ चक्र प्रकृति विकृति उभयात्मक है। समूर्ण श्रीचक्र इस प्रकार भी त्रितयात्मक है। बिन्दु त्रिकोण अष्टार सृष्टि चक्र है,दशारद्वय और चतुरदशार स्थिति चक्र है,तथा अष्टदल षोडशदल और भूपुर विन्द्वन्त भूपुरान्त चक्र को सृष्टिक्रम तथा भूपुरादि विन्द्वन्त चक्र को संहार क्रम कहते हैं। इस प्रत्येक खण्ड में आदि मध्य अन्त या इच्छा ज्ञान क्रिया रूप से त्रिपुटी समझना चाहिये। यह समान्यतया श्रीचक्र का संक्षिप्त परिचय है।
आगे हम जानेंगे बिन्दुचक्र यानी पूर्णहन्ता या शिवभाव.

No comments: